महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 124 श्लोक 1-20

चतुविंशत्‍यधिकशततम (124) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुविंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


इन्‍द्र और प्रह्लाद की कथा- शील का प्रभाव, शील के अभाव में धर्म, सत्‍य, सदाचार, बल और लक्ष्‍मी के न रहने का वर्णन


युधिष्ठिर ने पूछा- नरेश्रष्ठ! पितामह! भूमण्‍डल के ये सभी मनुष्‍य सर्वप्रथम धर्म के अनुरुप शील की ही अधिक प्रशंसा करते हैं, अत: इस विषय में मुझे बड़ा भारी संदेह हो गया है। धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ! यदि मैं उसे जान सकूँ तो जिस प्रकार शील की उपलब्धि होती है, वह सब सुनना चाहता हूँ। भारत! वह शील कैसे प्राप्‍त होता है? यह सुनने की मेरी बड़ी इच्‍छा है। वक्‍ताओं मे श्रेष्ठ पितामह! उसका क्‍या लक्षण बताया गया है? यह मुझसे कहिये।

भीष्‍म जी ने कहा- दूसरों को मान देनेवाले महाराज! भरतनन्‍दन! पहले इन्‍द्रप्रस्‍थ में (राजसूययज्ञ के समय) भाइयों सहित तुम्‍हारी वैसी अद्भुत श्रीसम्‍पत्ति, वह परम उत्तम सभा और समृद्धि देखकर संतप्‍त हुए दुर्योधन ने कौरव सभा में बैठकर पिता धृतराष्ट्र से अपनी गहरी चिन्‍ता प्रकट की-सारी मनोव्‍यथा कह सुनायी। उसने सभा में जो बातें कही थीं, वह सब सुनो। उस समय धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की बात सुनकर कर्ण सहित उससे इस प्रकार कहा। धृतराष्ट्र बोले- बेटा! तुम किस लिये संतप्त हो रहे हो! यह मैं ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ, सुनकर यदि उचित होगा तो तुम्‍हें समझाने का प्रयत्‍न करुँगा। शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले वीर! तुमने भी तो महान ऐश्‍वर्य प्राप्‍त किया है? तुम्‍हारे समस्‍त भार्इ, मित्र और सम्‍बन्‍धी सदा तुम्‍हारी सेवा में उपस्थित रहते हैं। तुम अच्‍छे-अच्‍छे वस्‍त्र ओढ़ते-पहनते हो, पिशितौदन खाते हो और ‘आजानेय’ अश्व (अरबी घोड़े) तुम्‍हारा रथ खींचते हैं, फिर तुम क्‍यो सफेद और दुबले हुए जाते हो?

दुर्योधन ने कहा- पिताजी! युधिष्ठिर के महल में दस हजार महामनस्‍वी स्‍नातक ब्राह्मण प्रतिदिन सोने की थालियों में भोजन करते हैं। भारत! दिव्‍य फल-फूलों से सुशोभित वह दिव्‍य सभा, वे तीतर के समान रंगवाले चितकबरे घोड़े और वे भाँति-भाँति के दिव्‍य वस्‍त्र (अपने पास कहाँ है? वह सब) देखकर अपने शत्रु पाण्‍डवों के उस कुबेर के समान शुभ एवं विशाल ऐश्‍वर्य का अवलोकन करके मैं निरन्‍तर शोक में डूबा जा रहा हूँ।

धृतराष्ट्र ने कहा- तात! पुरुषसिंह! बेटा! युधिष्ठिर के पास जैसी सम्‍पति है, वैसी या उससे भी बढ़कर राजलक्ष्‍मी को यदि तुम पाना चाहते हो तो शीलवान बनो। इसमें संशय नहीं है कि शील के द्वारा तीनों लोकों पर विजय पायी जा सकती हैं शीलवानों के लिये संसार में कुछ भी असाध्‍य नहीं है। मान्‍धाता ने एक ही दिन में, जनमेजय ने तीन ही दिनों में और नाभाग ने सात दिनों में ही इस पृथ्‍वी का राज्‍य प्राप्‍त किया था। ये सभी राजा शीलवान और दयालु थे। अत: उनके द्वारा गुणों के मोल खरीदी हुई यह पृथ्‍वी स्‍वयं ही उनके पास आयी थी। दुर्योधन ने पूछा- भारत! जिसके द्वारा उन राजाओं ने शीघ्र ही भूमण्‍डल का राज्‍य प्राप्‍त कर लिया, वह शील कैसे प्राप्‍त होता है? यह मैं सुनना चाहता हूँ। धृतराष्ट्र बोले- भरतनन्‍दन! इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, जिसे नारद जी ने पहले शील के प्रसंग मे कहा था। दैत्‍यराज प्रह्लाद ने शील का ही आश्रय लेकर महामना महेन्‍द्र का राज्‍य हर लिया और तीनों लोकों को भी अपने वश में कर लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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