महाभारत वन पर्व अध्याय 244 श्लोक 1-22

चतुश्रत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (244) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुश्रत्‍वारिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


पाण्‍डवों का गन्‍धर्वों के साथ युद्ध

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर की बात सुनकर भीमसेन आदि सभी नरश्रेष्‍ठ पाण्डव युद्ध के लिये उठ खड़े हुए। उन सब के मुख पर प्रसन्नता छा रही थी। भारत! तदनन्‍तर उन समस्‍त महारिथयों ने जाम्‍बूनद नामक सुवर्ण से विभूषित एवं विचित्र शोभा धारण करने वाले अभेद कवच धारण किये। फिर नाना प्रकार के दिव्‍य आयुध हाथ में लिये, कवच धारण करके रथों पर आरुढ़ हो ध्‍वज और धनुष से सुशोभित समस्‍त पाण्‍डव प्रज्‍वलित अग्नियों के समान दिखायी देने लगे। उन रथों में तेज चलने वाले घोड़े जुते हुए थे। वे सभी रथ युद्ध की आवश्‍यक सामग्रियों से पूर्णत: सम्‍पन्‍न थे। रथियों में श्रेष्‍ठ पाण्‍डव उन पर आरूढ़ हो शीघ्र ही वहाँ से चल दिये। फिर तो कौरव सैनिकों की बड़ी भयंकर गर्जना सुनायी देने लगी।

महारथी पाण्‍डवों को एक साथ धावा बोलते देख विजयश्री से सुशोभित होने वाले आकाशचारी महारथी गन्‍धर्व बड़ी उतावली के साथ क्षणभर में उस वन के भीतर ऐसे एकत्र हो गये, मानो उन्‍हें किसी का भय न हो। तदनन्‍तर अपनी विजय से उल्‍लासित होते हुए सारे गन्‍धर्व शत्रुओं का सामना करने के लिए लौट पड़े। उन्‍होंने देखा, चारों वीर पाण्‍डव युद्ध के लिए उद्यत हो रथ पर बैठे हुए आ रहे हैं और अपनी कान्ति से लोकपालों के समान उद्भासित हो रहे हैं। यह देखकर गन्‍धमादन निवासी गन्‍धर्व अपनी सेना की व्‍यूह रचना करके खडे़ हो गये।

भारत! परम बुद्धिमान धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के पूर्वोक्‍त वचनों को स्‍मरण करके पाण्‍डवों ने कोमलतापूर्वक ही युद्ध आरंभ किया। परंतु गन्‍धर्वराज चित्रसेन के मूढ़ सैनिक ऐसे नहीं थे, जिन्‍हें कोमलतापूर्ण वर्ताव के द्वारा कल्‍याण के पथ पर लाया जा सके। तो भी उस समय शत्रुओं को संताप देने वाले सव्‍यसाची अर्जुन ने रणदुर्जय आकाशचारी गन्‍धर्वों को समझाते हुए इस प्रकार कहा- 'तुम सब लोग मेरे भाई राजा दुर्योधन को छोड़ दो।' यशस्‍वी पाण्‍डुनंदन अर्जुन के ऐसा कहने पर गन्‍धर्वों ने मुस्‍कराकर उनसे इस प्रकार कहा- ‘तात! हम भूमंडल में केवल एक व्‍यक्ति की ही आज्ञा का पालन करते हैं। भारत! जिनके शासन को शिरोधार्य करके हम निश्चिन्‍त हो सर्वत्र विचरते हैं, हमारे उन्‍हीं एकमात्र स्‍वामी ने जैसी आज्ञा दी है, वैसा बर्ताव हम कर रहे हैं। अत: इन देवेश्‍वर के सिवा दूसरा कोई ऐसा व्‍यक्ति नहीं है, जो हम लोगों पर शासन कर सके।'

गन्‍धर्वों के ऐसा कहने पर कुन्‍तीनंदन अर्जुन ने पुन: उन्हें इस प्रकार उत्‍तर दिया- 'गन्‍धर्वो! परायी स्‍त्रियों का अपहरण और मनुष्‍यों के साथ युद्ध-ये घृणित कर्म गन्‍धर्वराज चित्रसेन को शोभा नहीं देते हैं। अत: तुम लोग धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा से इस महापराक्रमी धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा इनकी स्त्रियों को छोड़ दे। गन्‍धर्वों! यदि इस प्रकार समझाने-बुझाने से तुम लोग धृतराष्‍ट्र के पुत्रों को नहीं छोड़ोगे, तो मैं स्‍वयं ही पराक्रम करके दुर्योधन को छुड़ा लूंगा'। ऐसा कहकर सव्‍यसाची अर्जुन ने गन्‍धर्वों के एक-एक दल पर अपने तीखे आकाशगामी बाणों की वर्षा आरम्‍भ कर दी। इसी प्रकार बलोन्‍मत गन्‍धर्व भी बाणों की बौछार करते हुए पाण्‍डवों से भिड़ गये। इधर से पाण्‍डव भी गन्‍धर्वों का डटकर सामना करने लगे। भारत! तदनन्‍तर बलशाली गन्‍धर्वों तथा भयानक वेग वाले पाण्‍डवों में अत्‍यन्‍त भंयकर युद्ध प्रारम्‍भ हो गया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत घोषयात्रापर्व में पाण्‍डव-गन्‍धर्व युद्ध विषयक दो सौ चौवालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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