महाभारत आदि पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-13

त्रिसप्ततितम (73) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: त्रिसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

शकुन्तला और दुष्यन्त का गान्धर्व विवाह और महर्षि कण्व के द्वारा उसका अनुमोदन

दुष्यन्त बोले- कल्याणि! तुम जैसी बातें कह चुकी हो, उनसे भली-भाँति स्पष्ट हो गया है कि तुम क्षत्रिय-कन्या हो (क्योंकि विश्वामित्र मुनि जन्म से तो क्षत्रिय ही हैं) सुश्रोणि! मेरी पत्नी बन जाओ। बोलो, मैं तुम्हारी प्रसन्नता के लिये क्या करूं। सोने के हार, सुन्दर वस्त्र तपाये हुए सुवर्ण के दो कुण्डल, विभिन्न नगरों के बने हुए सुन्दर और चमकीले मणिरत्न निर्मित आभूषण, स्वर्णपदक और कोमल मृगचर्म आदि वस्तुऐं तुम्हारे लिये मैं अभी लाये देता हूँ। शोभने! अधिक क्या कहूं, मेरा सारा राज्य आज से तुम्हारा हो जाय, तुम मेरी महारानी बन जाओ। भीरू! सुन्दरि! गान्धर्व विवाह के द्वारा मुझे अंगीकार करो। रम्भोरू! विवाहों में गान्धर्व विवाह श्रेष्ठ कहलाता है।

शकुन्तला ने कहा- राजन्! मेरे पिता कण्व फल लाने के लिये इस आश्रम से बाहर गये हैं। दो घड़ी प्रतीक्षा कीजिये। वे ही मुझे आपकी सेवा में समर्पित करेंगे। महाराज! पिता ही मेरे प्रभु हैं। उन्हें ही मैं सदा अपना सर्वोत्कृष्ट देवता मानती हूँ। पिताजी मुझे जिसको सौंप देंगे, वही मेरा पति होगा। कुमारावस्था में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्र रक्षा करता है। अतः स्त्री को कभी स्वतन्त्र नहीं रहना चाहिये। धर्मिष्ठ राजेन्द्र! मैं अपने तपस्वी पिता की अवहेलना करके अधर्मपूर्वक पति का वरण कैसे कर सकती हूं?

दुष्यन्त बोले- सुन्दरी! ऐसा न कहो। तपोराशि महात्मा कण्व बड़े ही दयालु हैं।

शकुन्तला ने कहा- राजन्! ब्राह्मण क्रोध के द्वारा ही प्रहार करते हैं। वे हाथ में लोहे का हथियार नहीं धारण करते। अग्नि अपने तेज से, सूर्य अपनी किरणों से, राजा दण्ड से और ब्राह्मण क्रोध से दग्ध करते हैं। कुपित ब्राह्मण अपने क्रोध से अपराधी को वैसे ही नष्ट कर देता है, जैसे वज्रधारी इन्द्र असुरों को।

दुष्यन्त बोले- वरारोहे! तुम्हारा शील और स्वभाव प्रशंसा के योग्य है। मैं चाहता हूं, तुम मुझे स्वेच्छा से स्वीकार करो। मैं तुम्हारे लिये ही यहाँ ठहरा हूँ। मेरा मन तुममें ही लगा हुआ है। आत्मा ही अपना बन्धु है। आत्मा ही अपना आश्रय है। आत्मा ही अपना मित्र है और वही अपना पिता है, अतः तुम स्वंय ही धर्मपूर्वक आत्म समर्पण करने योग्य हो। धर्मशास्‍त्र की दृष्टि से संक्षेप से आठ प्रकार के ही विवाह माने गये हैं- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस तथा आठवां पैशाच।[1] स्वायम्भुव मनु का कथन है कि इनमें बाद वालों की अपेक्षा पहले वाले विवाह धर्मानुकूल हैं। पूर्वकथित जो चार विवाह- ब्राह्म, दैव, आर्ष तथा प्राजापत्य हैं, उन्हें ब्राह्मण के लिये उत्तम समझो। अनिन्दिते! ब्राह्म से लेकर गान्धर्व तक क्रमश: छ: विवाह क्षत्रिय के लिये धर्मानुकूल जानो। राजाओं के लिये तो राक्षस विवाह का भी विधान है। वैश्‍यों और शूद्रों में आसुर विवाह ग्राह्य माना गया है। अन्तिम पांच विवाहों में तीन तो धर्मसम्मत हैं और दो अधर्मरूप माने गये हैं। पैशाच और आसुर विवाह कदापि करने योग्‍य नहीं है। इस विधि के अनुसार विवाह करना चाहिये। यह धर्म का मार्ग बताया गया है। गान्धर्व और राक्षस- दोनों विवाह क्षत्रिय जाति के लिये धर्मानुकूल ही हैं। अतः उनके विषय में तुम्हें संदेह नहीं करना चाहिये। वे दोनों विवाह परस्पर मिले हों या पृथक-पृथक हो, क्षत्रिय के लिये करने योग्य ही हैं, इसमें संशय नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कन्या को वस्त्र और आभूषणों से अलंकृत करके सजातीय योग्य वर के हाथ में देना 'ब्राह्म' विवाह कहलाता है। अपने घर पर देवयज्ञ करके यज्ञांत में ऋत्विज को अपनी कन्या का दान करना 'दैव' विवाह कहा गया है। वर और कन्या दोनों साथ रहकर धर्माचरण करें, इस बुद्धि से कन्यादान करना 'प्राजापत्य' विवाह माना गया है। वर से एक गाय और एक बैल शुल्क के रूप में लेकर कन्यादान करना 'आर्य' विवाह बताया गया है। वर से मूल्य के रूप बहुत सा धन लेकर कन्या देना 'आसुर' विवाह माना गया है। वर और वधू एक दूसरे को स्वेच्छा से स्वीकार कर लें, यह गान्धर्भ विवाह है। जब घर के लोग सोये हों अथवा असावधान हों, उस दशा में कन्या को चुरा लेना 'पैशाच' विवाह है। युद्ध करके मार-काट मचाकर रोती हुई कन्या को उसके रोते हुए भाई-बंधुओं से छीन लाना 'राक्षस' विवाह माना गया है।

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