महाभारत आदि पर्व अध्याय 229 श्लोक 1-15

एकोनत्रिंशदधिकद्विशततमम (229) अध्‍याय: आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: एकोनत्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


जरिता का अपने बच्चों की रक्षा के लिये चिन्तित होकर विलाप करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर जब आग प्रज्वलित हुई, तब वे शांर्गक शिशु बहुत दुखी, व्यथित और अत्यन्त उद्विग्न हो गये। उस समय उन्हें अपना कोई रक्षक नहीं जान पड़ता था। उन बच्चों को छोटे जानकर उनकी तपस्विनी माता शोक और दुःख से आतुर हुई जरिता बहुत दुखी होकर विलाप करने लगी। जरिता बोली - यह भयानक आग इस वन को जलाती हुई इधर ही बढ़ रही है। जान पड़ता है, यह सम्पूर्ण जगत् को भस्म कर डालेगी। इसका स्वरूप भयंकर और मेरे दुःख को बढ़ाने वाला है। ये सांसारिक शान से शून्य चित्त वाले शिशु मुझे अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इन्हें पाँखें नहीं निकली और अभी तक ये पैरों से भी हीन हैं, हमारे पितरों के ये ही आधार हैं। सबको त्रास देत और वृक्षों को चाटती हुई वह आग की लपट इधर ही चली आ रही है।

हाय! मेरे बच्चे बिना पंख के हैं, मेरे साथ उड़ नहीं सकते। मैं स्वयं भी इन्हें लेकर इस आग से पार नहीं हो सकूँगी। इन्हें छोड़ भी नहीं सकती। मेरे हृदय में इनके लिये बड़ी व्यथा हो रही है। मैं किस बच्चे को छोड़ दूँ और किसे लेकर साथ लेकर जाऊँ? क्या करने से कृतकृत्य हो सकती हूँ? मेरे बच्चों! तुम लोगों की क्या राय है? मैं तुम लोगों के छुटकारे का उपाय सोचती हूँ; किंतु कुछ भी समझ में नहीं आता। अच्छा; अपने अंगों से तुम लोगों को ढँक लूँगी और तुम्हारे साथ ही मैं भी मर जाऊँगी। पुत्रो! तुम्हारे निर्दयी पिता पहले ही यह कहकर चल दिये कि ‘जरितारि ज्येष्ठ है’ अतः इस कुल की रक्षा का भार इसी पर होगा। दूसरा पुत्र सारिसृक्क अपने पितरों के कुल की वृद्धि करने वाला होगा। स्तम्बमित्र तपस्या करेगा और द्रोण ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हो। हाय! मुझ पर बड़ी भारी कष्टदायिनी आपत्ति आ पड़ी। इन चारों बच्चों में से किसको लेकर मैं इस आग को पार कर सकूँगी। क्या करने से मेरा कार्य सिद्ध हो सकता है? इस प्रकार विचार करते-करते जरिता अत्यन्त विह्वल हो गयी; परंतु अपने पुत्रों को उस आग से बचाने का कोई उपाय उस समय उसके ध्यान में नहीं आया।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार बिलखती हुई अपनी माता से वे शांर्ग पक्षी के बच्चे बोले- ‘माँ तुम स्नेह छोड़कर जहाँ आग न हो, उधर उड़ जाओ। माँ! यदि हम यहाँ नष्ट हो जायँ तो भी तुम्हारे दूसरे बच्चे हो सकते हैं; परंतु तुम्हारे नष्ट हो जाने पर तो हमारे इस कुल की परम्परा ही लुप्त हो जायेगी। माँ! इन दोनों बातों पर विचार करके जिस प्रकार हमारे कुल का कल्याण हो, वही करने को तुम्हारे लिये यह उत्तम अवसर है। तुम हम सब पुत्रों पर ऐसा स्नेह न करो, जिससे सब का विनाश हो जाय। उत्तम लोक की इच्छा रखने वाले मेरे पिता का यह कर्म व्यर्थ न हो जाय।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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