अष्टाशीत्यधिकद्विशततम (288) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टाशीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- दादा जी! मेरे-जैसा राजा कैसे साधन और व्यवहार से युक्त होकर पृथ्वी पर विचरे और सदा किन गुणों से सम्पन्न होकर वह आसक्ति के बन्धन से मुक्त हो? भीष्म जी ने कहा- राजन! इस विषय में राजा सगर के प्रश्न करने पर अरिष्टनेमि ने जो उत्तर दिया था, वह प्राचीन इतिहास मैं तुम्हें बताऊँगा। सगर ने पूछा- ब्रह्मन! इस जगत में मनुष्य किस परमकल्याणकारी कर्म का अनुष्ठान करके सुख का भागी होता है? तथा किस उपाय से उसे शोक या क्षोभ प्राप्त नहीं होता? यह मैं जानना चाहता हूँ। भीष्म जी कहते हैं- राजन! राजा सगर के इस प्रकार पूछने पर सम्पूर्ण शास्त्रज्ञों में श्रेष्ठ ताक्षर्य (अरिष्टनेमि)- ने उनमें सर्वोत्तम दैवी सम्पति के गुण जानकर उनको इस प्रकार उत्तम उपदेश दिया- 'सगर! संसार में मोक्ष का सुख ही वास्तविक सुख है, परंतु जो धनधान्य के उपार्जन में व्यग्र तथा पुत्र और पशुओं में आसक्त है, उस मूढ़ मनुष्य को उसका यथार्थ ज्ञान नहीं होता। जिसकी बुद्धि विषयों में आसक्त है, जिसका मन अशान्त रहता है, ऐसे मनुष्य की चिकित्सा करनी कठिन है; क्योंकि जो स्नेह के बन्धन में बँधा हुआ है, वह मूढ़ मोक्ष पाने के लिये योग्य नहीं होता। मैं तुम्हें स्नेहजनित बन्धनों का परिचय देता हूँ, उन्हें तुम मुझसे सुनो। श्रवणेन्द्रियसम्पन्न समझदार मनुष्य ही ऐसी बातों को बुद्धिपूर्वक सुन सकता है। समयानुसार पुत्रों को उत्पन्न करके जब वे जवान हो जायँ, तब उनका विवाह कर दो और जब यह मालूम हो कि अब ये दूसरे के सहयोग के बिना ही जीवन-निर्वाह करने में समर्थ हैं, तब उनके स्नेह-पाश से मुक्त हो सुखपूर्वक विचरो। पत्नी पुत्रवती होकर वृद्ध हो गयी। अब पुत्रगण उसका पालन करते हैं और वह भी पुत्रों पर पूर्ण वात्सल्य रखती है, यह जानकर परम पुरुषार्थ मोक्ष को अपना लक्ष्य बनाकर यथा समय उसका परित्याग कर दे। शास्त्र-विधि के अनुसार इन्द्रियों द्वारा इन्द्रियों के विषयों का अनुभव करके जब तुम उनके खेल को पूरा कर चुको, तब संतान हुई हो चाहे न हुई हो, उनसे मुक्त होकर सुखपूर्वक विचरो। दैवेच्छा से जो भी लौकिक पदार्थ उपलब्ध हों, उनमें समान भाव रखो-राग-द्वेष न करो। यह संक्षेप में मैंने तुम्हें मोक्ष का विषय बताया है। अब पुन: इसी को विस्तार के साथ बता रहा हूँ, सुनो। मुक्त पुरुष सुखी होते हैं और संसार में निर्भय होकर विचरते हैं किंतु जिनका चित्त विषयों में आसक्त होता है, वे कीड़-मकोड़ों की भाँति आहार का संग्रह करते-करते ही नष्ट हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है; अत: जो आसक्ति से रहित हैं, वे ही इस संसार में सुखी हैं। आसक्त मनुष्यों का तो नाश ही होता है। यदि तुम्हारी बुद्धि मोक्ष में लगी हुई है तो तुम्हें स्वजनों के विषय में ऐसी चिन्ता नहीं करनी चाहिये कि ये मेरे बिना कैसे रहेंगे। प्राणी स्वयं जन्म लेता है, स्वयं बढ़ता है और स्वयं ही सुख-दुख तथा मृत्यु को प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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