पंचषष्टितम (65) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: पंचषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
शकुनि बोला- कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! आप अब तक पाण्डवों का बहुत-सा धन हार चुके। यदि आपके पास बिना हारा हुआ कोई धन शेष हो तो बताइये। युधिष्ठिर बोले- सुबलपुत्र! मेरे पास असंख्य धन है, जिसे मैं जानता हूँ। शकुने! तुम मेरे धन का परिमाण क्यों पूछते हो? अयुत, प्रयुत, शंकु, पद्म, अर्बुद, खर्व, शंख, निखर्व, महापद्म, कोटि, मध्य, परार्घ और पर इतना धन मेरे पास है। राजन्! खेलो, मैं इसी को दाँव पर रखकर तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर शकुनि ने छल का आश्रय ले पुन: इसी निश्चय के साथ युधिष्ठिर से कहा- 'लो, यह धन भी मैंने जीत लिया'। युधिष्ठिर बोले- सुबलपुत्र! मेरे पास सिन्धु नदी के पूर्वी तट से लेकर पर्णाशा नदी के किनारे तक जो भी बैल, घोडे़, गाय, भेड़ एवं बकरी आदि पशुधन हैं, वह असंख्य है। उनमें भी दूध देने वाली गौओं की संख्या अधिक है। यह सारा मेरा धन है, जिसे मैं दाँव पर रखकर तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर शठता के आश्रित हुए शकुनि ने अपनी ही बात घोषित करते हुए युधिष्ठिर से कहा- 'लो, यह दाँव भी मैंने ही जीता'। युधिष्ठिर बोले- राजन्! ब्राह्मणों को जीविकारूप में जो ग्रामादि दिये गये हैं, उन्हें छोड़कर शेष जो नगर,जनपद तथा भूमि मेरे अधिकार में है तथा जो ब्राह्मणतर मनुष्य मेरे यहाँ रहते हैं, वे सब मेरे शेष धन हैं। शकुने! मैं इसी धन का दाँव पर रखकर तुम्हारे साथ जूआ खेलता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर कपट का आश्रय ग्रहण करके शकुनि ने पुन: अपनी ही जीत का निश्चय करके युधिष्ठिर से कहा- 'इस दाँव पर भी मेरी ही विजय हुई'। युधिष्ठिर बोले- राजन्! ये राजपुत्र जिन आभूषणों से विभूषित होकर शोभित हो रहे हैं, वे कुण्डल और गले के स्वर्णभूषण आदि समस्त राजकीय आभूषण मेरे धन हैं। इन्हे दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर छल-कपट का आश्रय लेने वाले शकुनि ने युधिष्ठिर से निश्चयपूर्वक कहा- ‘लो, यह भी मैंने जीता’। युधिष्ठिर बोले- श्यामवर्ण, तरुण, लाल नेत्रों और सिंह के समान कंधों वाले महाबाहु नकुल को ही इस समय में दाँव पर रखता हूँ, इन्हीं को मेरे दाँव का धन समझो। शकुनि बोला- धर्मराज युधिष्ठिर! आपके परमप्रिय राजकुमार नकुल तो हमारे अधीन हो गये, अब किस धन से आप यहाँ खेल रहे हैं? वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर शकुनि ने पासे फेंके और युधिष्ठिर से कहा- ‘लो, इस दाँव पर भी मेरी ही विजय हुई’। युधिष्ठिर बोले- ये सहदेव धर्मों का उपदेश करते हैं। संसार में पण्डित के रूप में इनकी ख्याति है। मेरे प्रिय राजकुमार सहदेव यद्यपि दाँव पर लगाने के योग्य नहीं हैं, तो भी मैं अप्रिय वस्तु की भाँति इन्हें दाँव पर रखकर खेलता हूँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर छली शकुनि ने उसी निश्चय के साथ युधिष्ठिर से कहा- ‘यह दाँव भी मैंने ही जीता’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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