महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-15

एकोनविंश (19) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


अष्टावक्र मुनि का वदान्य ऋषि के कहने से उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान, मार्ग में कुबेर के द्वारा उनका स्वागत तथा स्त्रीरूपधारी उत्तर दिशा के साथ उनका संवाद

युधिष्ठिर ने पूछा- "भरतश्रेष्ठ! जो यह स्त्रियों के लिये विवाह काल में सहधर्म की बात कही जाती है, वह किस प्रकार बतायी गयी है? महर्षियों ने पूर्वकाल में जो यह स्त्री-पुरुषों के सहधर्म की बात कही है, यह आर्ष धर्म है या प्राजापत्य धर्म; अथवा आसुर धर्म है? मेरे मन में यह महान संदेह पैदा हो गया है। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि यह सहधर्म का कथन विरुद्ध है। यहाँ जो सहधर्म है, वह मृत्यु के पश्चात कहाँ रहता हैं? पितामह! जबकि मरे हुए मनुष्यों का स्वर्गवास हो जाता है एवं पति और पत्नी में से एक की पहले मृत्यु हो जाती है, तब एक व्यक्ति में सहधर्म कहाँ रहता है? यह बताइये। जब बहुत-से मनुष्य नाना प्रकार के धर्मफल से संयुक्त होते हैं, नाना प्रकार के कर्मवश विभिन्न स्थानों में निवास करते हैं और शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग-नरक आदि नाना अवस्थाओं में पड़ते हैं, तब वे सहधर्म का निर्वाह किस प्रकार कर सकते हैं?

धर्मसूत्रकार यह निश्चित रूप से कहते हैं कि स्त्रियाँ असत्य परायण होती हैं। तात! जब स्त्रियाँ असत्यवादिनी ही हैं, तब उन्हें साथ रखकर सहधर्म का अनुष्ठान कैसे किया जा सकता है? वेदो में भी यह बात पढ़ी गयी है कि स्त्रियाँ असत्यभाषिणी होती हैं, ऐसी दशा में उनका वह असत्य कभी धर्म नहीं हो सकता; अतः दाम्पत्य धर्म को जो सहधर्म कहा गया है, यह उसकी गौण संज्ञा है। वे पति-पत्नी साथ रहकर जो भी कार्य करते हैं, उसी को उपचारतः धर्म नाम दे दिया गया है। पितामह! मै ज्यों-ज्यों इस विषय पर विचार करता हूँ, त्यों-त्यों यह बात मुझे अत्यन्त दुर्बोध प्रतीत होती है। अतः आप में इस विषय में जो कुछ श्रुति का विधान हो, उसके अनुसार यह सब समझाइये जिससे मेरा संदेह दूर हो जाये। महामते! यह सहधर्म जब से प्रचलित हुआ, जिस रूप में सामने आया और जिस प्रकार इसकी प्रवृत्ति हुई, ये सारी बातें आप मुझे बताइये।"

भीष्म जी ने कहा- "भरतनन्दन! इस विषय में अष्टावक्र मुनि का उत्तर दिशा की अधिष्ठात्री देवी के साथ जो संवाद हुआ था, उसी प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। पूर्वकाल की बात है, महातपस्वी अष्टावक्र विवाह करना चाहते थे, उन्होंने इसके लिये महात्मा वदान्य ऋषि से उनकी कन्या मांगी। उस कन्या का नाम था सुप्रभा। इस पृथ्वी पर उसके रूप की कहीं तुलना नहीं थी। गुण, प्रभाव, शील और चरित्र सभी दृष्टियों से वह परम सुन्दर थी। जैसे वसंत ऋतु में सुन्दर फूलों से सजी हुई विचित्र वनश्रेणी मनुष्य के मन को लुभा लेती है, उसी प्रकार उस शुभलोचना मुनिकुमारी ने दर्शनमात्र से अष्टावक्र का मन चुरा लिया था। वदान्य ऋषि ने अष्टावक्र के मांगने पर इस प्रकार उत्तर दिया- 'विप्रवर! जिसके दूसरी कोई स्त्री न हो, जो परदेश में न रहता हो, विद्वान, प्रिय वचन बोलने वाला, लोक सम्मानित, वीर, सुशील, भोग भोगने में समर्थ, कान्तिमान और सुन्दर पुरुष हो, उसी के साथ मुझे अपनी पुत्री का विवाह करना है। जो स्त्री की अनुमति से यज्ञ करता और उत्तम नक्षत्र वाली कन्या को व्याहता है, वह पुरुष अपनी पत्नी के साथ तथा पत्नी अपने पति के साथ रहकर दोनों ही इहलोक और परलोक में आनन्द भोगते हैं। मैं तुम्हें अपनी कन्या अवश्य दे दूंगा, परंतु पहले एक बात सुनो। यहाँ से परम पवित्र उत्तर दिशा की ओर चल जाओ। वहाँ तुम्हें उसका दर्शन होगा।'

अष्टावक्र ने पूछा- 'महर्षे! उत्तर दिशा में जाकर मुझे किसका दर्शन करना होगा? आप यह बताने की कृपा करें तथा उस समय मुझे क्या और किस प्रकार करना चाहिये, यह भी आप ही बतायेंगे।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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