महाभारत सभा पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-19

द्वितिय (2) अध्‍याय: सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण की द्वारका यात्रा

  • वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! परम पूजनीय भगवान श्रीकृष्ण खाण्डवप्रस्थ में सुखपूर्वक रहकर प्रेमी पाण्डवों के द्वारा नित्य पूजित होते रहे। (1)
  • तदनन्तर पिता के दर्शन के लिये उत्सुक होकर विशाल नेत्रों वाले श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर और कुन्ती की आज्ञा लेकर वहाँ से द्वारका जाने का विचार किया। (2)
  • जगद्वन्ध केशव ने अपनी बुआ कुन्ती के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और कुन्ती ने उनका मस्तक सूँघकर उन्हें हृदय से लगा लिया। (3)
  • तत्पश्चात महायशस्वी हृषीकेश अपनी बहिन सुभद्रा से मिले। उसके पास जाने पर स्नेहवश उनके नेत्रों में आँसू भर आये। (4)
  • भगवान ने मंगलमय वचन बोलने वाली कल्याणमयी सुभद्रा से बहुत थोडे़, सत्य, प्रयोजन पूर्ण, हितकारी, युक्तियुक्त एवं अकाट्‍य वचनों द्वारा अपने जाने की आवश्यकता बतायी[1]। (5)
  • सुभद्रा ने बार-बार भाई की पूजा करके मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और माता-पिता आदि स्वजनों से कहने के लिये संदेश दिये। (6)
  • भामिनी सुभद्रा को प्रसन्न करके उससे जाने की अनुमति लेकर वृष्णि कुलभूषण जनार्दन द्रौपदी तथा धौम्य मुनि से मिले। (7)
  • पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने यथोचित रीति से धौम्य जी को प्रणाम किया और द्रौपदी को सान्त्वना दी। उसकी अनुमति लेकर वे अर्जुन के साथ अन्य भाईयों के पास गये। पाँचों भाई पाण्डवों से घिरे हुए विद्वान एवं बलवान श्रीकृष्ण देवताओं से घिरे हुए इन्द्र की भाँति सुशोभित हुए। (8-9)
  • तदनन्तर गरुड़ध्वज श्रीकृष्ण ने यात्राकालोचित कर्म करने के लिये पवित्र हो स्नान करके अलंकार धारण किया। (10)
  • फिर उन यदुश्रेष्ठ ने प्रचुर पुष्प माला, जप, नमस्कार और चन्दन आदि अनेक प्रकार के सुगन्धित पदार्थों द्वारा देवताओं और ब्राह्मणों की पूजा की। (11)
  • प्रतिष्ठित पुरुषों में श्रेष्ठ यदुप्रवर श्रीकृष्ण यात्राकालोचित सब कार्य पूर्ण करके प्रस्थित हुए और भीतर से चलकर बाहरी ड्योढ़ी को पार करते हुए राजभवन से बाहर निकले। (12)
  • उस समय सुयोग्य ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन किया और भगवान ने दही से भरे पात्र, अक्षत, फल आदि के साथ उन ब्राह्मणों को धन देकर उन सबकी परिक्रमा की। (13)
  • इसके बाद गरुड़चिह्नित ध्वजा से सुशोभित और गदा, चक्र, खड्ग एवं शांर्गधनुष आदि आयुधों से सम्पन्न शैव्य, सुग्रीव आदि घोड़ों से युक्त शुभ सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ हो कमलनयन श्रीकृष्ण ने उत्तम तिथि, शुभ नक्षत्र एवं गुणयुक्त मुहूर्त में यात्रा आरम्भ की। (14-15)
  • उस समय श्रीकृष्ण का रथ हाँकने वाले सारथियों में श्रेष्ठ दारुक को हटाकर उसके स्थान में राजा युधिष्ठिर प्रेमपूर्वक भगवान के साथ रथ पर जा बैठे। (16)
  • कुरुराज युधिष्ठिर ने घोड़ों की बागड़ोर स्वयं अपने हाथ में ले ली। फिर महाबाहु अर्जुन भी रथ पर बैठ गये और सुवर्णमय दण्ड से विभूषित श्वेत चँवर लेकर दाहिनी ओर से उनके ऊपर डुलाने लगे। (17)
  • इसी प्रकार नकुल, सहदेव सहित बलवान भीमसेन भी ऋत्विजों और पुरवासियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे चल रहे थे। उन्होंने वेगपूर्वक आगे बढ़कर शांर्गधनुष धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के ऊपर दिव्य मालाओं से सुशोभित एवं सौ शलाकाओं[2] से युक्त स्वर्णविभूषित छत्र लगाया। उस छत्र में वैदूर्यमणिका डंडा लगा हुआ था। नकुल और सहदेव भी शीघ्रतापूर्वक रथ पर आरूढ़ हो श्वेत चँवर और व्यजन डुलाते हुए जनार्दन की सेवा करने लगे। उस समय अपने समस्त फुफेरे भाईयों से संयुक्त शत्रुदमन केशव ऐसी शोभा पाने लगे, मानो अपने प्रिय शिष्यों के साथ गुरु यात्रा कर रहे हों। (18-19)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. और उसे ढाढ़स बँधाया
  2. तिल्लियों

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