महाभारत वन पर्व अध्याय 160 श्लोक 1-26

षष्‍टयधिकशततम (160) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद


पाण्डवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास, द्रौपदी के अनुरोध से भीमसेन का पर्वत के शिखर पर जाना और यक्षों तथा राक्षसों से युद्ध करके मणिमान् का वध करना

जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन्! गन्धमादन पर्वत पर आर्ष्टिषेण के आश्रम में मेरे समस्त पूर्वपितामह दिव्य पराक्रमी महामना पाण्डव कितने समय तक रहे? वे सभी महान् पराक्रमी और अत्यन्त बल-पौरुष से सम्पन्न थे। वहाँ रहकर उन्होंने क्या किया? साधुशिरोमणे! वहाँ निवास करते समय विश्वविख्यात वीर महामना पाण्डवों के भोज्य पदार्थ क्या थे? यह बतानेकी कृपा करें। आप मुझसे भीमसेन का पराक्रम विस्तारपूर्वक बतावें। उन महाबाहु ने हिमालय पर्वत के शिखर पर रहते समय कौन-कौन-सा कार्य किया था? द्विजश्रेष्ठ! उनका यक्षों के साथ फिर कोई युद्ध हुआ था या नहीं? क्या कुबेर के साथ कभी उनकी भेंट हुई थीं? क्योंकि आर्ष्टिषेण ने जैसा बताया था, उसके अनुसार वहाँ कुबेर अवश्य आते रहे होंगे। तपोधन! मैं यह सब विस्तार के साथ सुनना चाहता हूं; क्योंकि पाण्डवों का चरित्र सुनने से मुझे तृप्ति नहीं होती।

वैशम्यान जी ने कहा- राजन्! अप्रतिम तेजस्वी आर्ष्टिषेण का यह अपने लिये हितकर वचन सुनकर भरतकुलभूषण पाण्डवों ने सदा उनके आदेश का उसी प्रकार पालन किया। वे हिमालय के शिखर पर निवास करते हुए मुनियों के खाने योग्य सरस फलों का और नाना प्रकार के पवित्र (बिना हिंसा के प्राप्त) मधु का भी भोजन करते थे। इस प्रकार भरतश्रेष्ठ पाण्डव वहाँ निवास करते थे। वहाँ निवास करते हुए उनका पांचवां वर्ष बीत गया। उन दिनों वे लोमश जी की कही हुई नाना प्रकार की कथाएं सुना करते थे। राजन्! घटोत्कच यह कहकर कि 'मैं आवश्यकता के समय स्वयं उपस्थित हो जाऊंगा', सब राक्षसों के साथ पहले ही चला गया था। आर्ष्टिषेण के आश्रम में रहकर अत्यन्त अद्भुत दृश्यों का अवलोकन करते हुए महामना पाण्डवों के अनेक मास व्यतीत हो गये। वहाँ रहकर क्रीड़ा-विहार करते हुए उन पाण्डवों से महाभाग मुनि और चारण बहुत प्रसन्न थे। उनका अन्तःकरण शुद्ध था और वे संयम-नियम के साथ उत्‍तम व्रत का पालन करने वाले थे।

एक दिन वे सभी पाण्डवों से मिलने के लिये आये। भरतशिरोमणि पाण्डवों ने उनके साथ दिव्य चर्चाएं कीं। तदनन्तर कुछ दिनों के बाद एक महान् जलाशय में निवास करने वाले महानाग ऋद्धिमान् को गरुड़ ने सहसा झपट्टा मारकर पकड़ लिया। उस समय वह महान् पर्वत हिलने लगा। बड़े-बड़े वृक्ष मिट्टी में मिल गये। वहां के समस्त प्राणियों तथा पाण्डवों ने उस अद्भुत घटना को प्रत्यक्ष देखा। तत्पश्चात् उस उत्‍तम पर्वत के शिखर से पाण्डवों की ओर हवा का एक झोंका आया, जिसने वहाँ सब प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की बनी हुई बहुत-सी सुन्दर मालाएं लाकर बिखेर दीं। पाण्डवों ने अपने सुहृदों के साथ जाकर उन मालाओं में गूँथे हुए दिव्य पुष्प देखे, जो पाँच रंग के थे। यशस्विनी द्रौपदी ने भी उन पुष्पों को देखा। तदनन्तर उसने समय पाकर पर्वत के एकान्त प्रदेश में सुखपूर्वक बैठे हुए महाबाहु भीमसेन से कहा- 'भरतश्रेष्ठ! गरुड़ के पंख से उठी हुई वायु के वेग से उस दिन उस महान् पर्वत से जो पांच रंग के फूल अश्वरथा नदी के तट पर गिराये गये थे, उन्हें सब प्राणियों ने प्रत्यक्ष देखा। मुझे याद है, खाण्डव वन में तुम्हारे महामना भाई सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन ने गन्धर्वों, नागों, राक्षसों तथा देवराज इन्द्र को भी युद्ध में आगे बढ़ने से रोक दिया था। बहुत-से भयंकर मायावी राक्षस उनके हाथों मारे गये और उन्होंने गाण्डीव नामक धनुष भी प्राप्त कर लिया। आर्यपुत्र! तुम्हारा पराक्रम भी इन्द्र के ही समान है। तुम्हारा तेज और बाहुबल भी महान् है। वह दूसरों के लिये दुःसह एवं दुर्धर्ष है। भीमसेन! मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे बाहुबल के वेग से थर्राकर सम्पूर्ण राक्षस इस पर्वत को छोड़ दें और दसों दिशाओं की शरण लें। तत्पश्चात् विचित्र मालाधारी एवं शिवस्वरूप इस उत्‍तम शैल शिखर को तुम्हारे सब सुहृद् भय और मोह से रहित होकर देखें। भीम! दीर्घकाल से मैं अपने मन में यही सोच ही रही हूँ। मैं तुम्हारे बाहुबल से सुरक्षित हो इस शैल शिखर का दर्शन करना चाहती हूँ।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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