महाभारत विराट पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-17

त्रयोदशम (13) अध्याय: विराट पर्व (समयपालन पर्व)

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महाभारत: विराट पर्व: त्रयोदशम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन के द्वारा जीमूत नामक विश्वविख्यात मल्ल का वध

जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन्! इस प्रकार मत्स्यदेश की राजधानी में गुप्त रूप से निवास करने वाले महापराक्रमी पाण्डुपुत्रों ने इसके बाद क्या किया?

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! इस प्रकार मत्स्यदेश की राजधानी में गुप्त रूप से निवास करने वाले पाण्डवों ने राजा विराट की सेवा करते हुए जो-जो कार्य किया, वह सुनो।

राजर्षि तृणबिन्दु और महात्मा धर्म के प्रसाद से पाण्डव लोग इस प्रकार विराट के नगर में अज्ञातवास के दिन पूरे करने लगे। महाराज युधिष्ठिर राजसभा के प्रमुख सदस्य और मत्स्यदेश की प्रजा के अत्यन्त प्रिय थे। राजन्! इसी प्रकार पुत्र सहित राजा विराट का भी उन पर विशेष प्रेम था। वे पासों का मर्म जानते थे। जैसे कोई सूत में बाँधे हुए पक्षियों को इच्छानुसार उड़ावे, उसी प्रकार वे द्यूतशाला में पासों को अपने इच्छानुसार फेंकते हुए राजा आदि को जूआ खेलाया करते थे। पुरुषसिंह धर्मराज युधिष्ठिर जूए में धन जीतकर अपने भाइयों को यथावत बाँट देते थे। इसका राजा विराट को भी पता नहीं लगता था। भीमसेन भी नाना प्रकार के भक्ष्य-भोज्य पदार्थ, जो मत्स्यनरेश द्वारा उन्हें पुरस्कार रूप में प्राप्त होते, बेच देते और उससे मिला हुआ धन युधिष्ठिर की सेवा में अर्पित करते थे।

अर्जुन को अन्तःपुर में जो पुराने उतारे हुए बहुमूल्य वस्त्र प्राप्त होते, उन्हें वे बेचते और बेचने से मिला हुआ मूल्य सब पाण्डवों को देते थे। पाण्डुनन्दन सहदेव भी ग्वालों का वेश धारणकर पाण्डवों को दही, दूध और घी दिया करते थे। नकुल भी घोड़ों के शिक्षा का कार्य करके महाराज विराट के संतुष्ट होने पर उनसे पुरस्कार स्वरूप जो धन पाते, उसे सब पाण्डवों को बाँट दिया करते थे। तपस्विनी एवं सुन्दरी द्रौपदी भी उन सब पतियों की देखभाल करती हुई ऐसा बर्ताव करती, जिससे फिर कोई उसे पहचान न सके। इस प्रकार एक-दूसरे का सहयोग करते हुए वे महारथी पाण्डव विराट नगर में बहुत छिपकर रहते थे; मानो पुनः माता के गर्भ में निवास कर रहे हों। राजन्! दुर्योधन द्वारा पहचान लिये जाने के भय से पाण्डव सदा सशंक रहते थे; अतः वे उस समय द्रौपदी की देखभाल करते हुए भी छिपकर ही वहाँ निवास करते थे। तदनन्तर चौथा महीना प्रारम्भ होने पर मत्स्यदेश में ब्रह्माजी की पूजा का महान् उत्सव मनाया जाने लगा। इसमें बड़ा समारोह होता था। मत्स्यदेश के लोगों को यह बहुत प्रिय था।

जनमेजय! उस समय विराट नगर में चारों दिशाओं से हजारों कुश्ती लड़ने वाले मल्ल जुटने लगे। इसी अवसर पर ब्रह्माजी और भगवान शंकर की सभा के समान उस राजधानी में लोगों का जमाव होता था। वहाँ आये हुए विशालकाय और महान् बलशाली मल्ल कालखंज नामक असुरों के समान जान पड़ते थे। वे सब अपनी शक्ति और पराक्रम के मद से उन्मत्त थे एवं बल में बहुत बढ़े-चढ़े थे। राजा विराट ने उन सबका खूब स्वागत सत्कार किया। उनके कंधे, कमर और कण्ठ सिंह के समान थे। वे निर्मल यश से सुशोभित और मनस्वी थे। उन्होंने अनेक बार राजा के समीप रंगभूमि (अखाड़े) में विजय पायी थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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