महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 89 श्लोक 1-13

एकोननवतितम (89) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


राजा के कर्तव्य का वर्णन


भीष्मजी कहते है- युधिष्ठिर! जिन वृक्षों के फल खाने के काम आते हैं, उनको तुम्हारें राज्य में कोई काटने न पावे, इसका ध्यान रखना चाहिये। मनीषी पुरुष मूल और फल को धर्मतः ब्राह्मणों का धन बताते हैं। इसलिये भी उनको काटना ठीक नहीं है। ब्राह्मणों से जो बच जाये उसी को दूसरे लोग अपने उपभोग में लावें। ब्राह्मण का अपराध करके अर्थात् उसे भोग वस्तु न देकर दूसरा कोई किसी प्रकार भी उसका अपहरण न करे। राजन्! यदि ब्राह्मण अपने लिये जीविका का प्रबन्ध न होने से दुर्बल हो जाय और उस राज्य को छोडकर अन्यत्र जाने लगे तो राजा का कर्तव्य है कि परिवार सहित उस ब्राह्मण के लिये जीविका की व्यवस्था करे। इतने पर भी यदि वह ब्राह्मण न लौटे तो ब्राह्मणों के समाज में जाकर राजा उससे यों कहे- ब्राह्मण! यदि आप यहाँ से चले जायेंगे तो ये प्रजा वर्ग के लोग किसके आश्रय में रहकर धर्म मर्यादा का पालन करेंगे। इतना सुनकर वह निश्चय ही लौट आयेगा। यदि इतने पर भी वह कुछ न बोले तो राजा को इस प्रकार कहना चाहिये- भगवन! मेरे द्वारा जो पहले अपराध बन गये हों, उन्हें आप भूल जायँ, कुन्तीनन्दन! इस प्रकार विनय पूर्वक ब्राह्मणों को प्रसन्न करना राजा का सनातन कर्तव्य है। लोग कहते है कि ब्राह्मणों को भोग सामग्री का अभाव हो तो उसे भोग अर्पित करने के लिये निमन्त्रित करें और यदि उसके पास जीविका का अभाव हो तो उसके लिये जीविका की व्यवस्था करे, परंतु मैं इस बात पर विश्वास नहीं करता; ( क्योंकि ब्राह्मण में भोगेच्छा का होना सम्भव नहीं है )। खेती, पशुपालन और वाणिज्य- ये तो इसी लोक में लोगों की जीविका के साधन हैं; परंतु तीनों वेद ऊपर के लोकों में रक्षा करते हैं। वे ही यज्ञों द्वारा समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और वृद्धि में हेतु है। जो लोग उस वेदविद्या के अध्ययनाध्यापन में अथवा वेदोक्त यज्ञ यागादि कर्मों में बाधा पहुँचाते हैं, वे डकैत है। उन डाकुओं का वध करने के लिये ही ब्रह्माजी ने क्षत्रिय जाति की सृष्टि की है।

नरेश्वर! कौरवनन्दन! तुम शत्रुओं को जीतो, प्रजा की रक्षा करो, नाना प्रकार के यज्ञ करते रहो और समरभूमि में वीरतापूर्वक लड़ो। जो रक्षा करने के योग्य पुरुषों की रक्षा करता है, वहीं राजा समस्त राजाओं में शिरोमणि है। जो रक्षा के पात्र मनुष्यों की रक्षा नहीं करते, उन राजाओं की जगत को कोई आवश्यकता नहीं है।

युधिष्ठिर! राजा को सब लोगों की भलाई के लिये सदा ही युद्ध करना अथवा उसके लिये उद्यत रहना चाहिये। अतः वह मानवशिरोमणि नरेश शत्रुओं की गतिविधि को जानने के लिये मनुष्यों को ही गुप्तचर नियत कर दे। युधिष्ठिर! जो लोग अपने अन्तरंग हों, उनसे बाहरी लोगों की रक्षा करो और बाहरी लोगों से सदा अन्तरंग व्यक्तियों को बचाओं। इसी प्रकार बाहरी व्यक्तियों की बाहर के लोगों से और समस्त आत्मीयजनों की आत्मीयों से सदा रक्षा करते रहो।

राजन! तुम सब ओर से अपनी रक्षा करते हुए ही इस सारी पृथ्वी की रक्षा करो; क्योंकि विद्वान पुरुषों का कहना है कि इन सबका मूल अपना सुरक्षित शरीर ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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