महाभारत सभा पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-16

त्रयोदश (13) अध्‍याय: सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: त्रयोदश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का राजसूय विषयक संकल्प और उसके विषय में भाइयों, मन्त्रियों, मुनियों तथा श्रीकृष्ण से सलाह लेना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! देवर्षि नारद का वह वचन सुनकर युधिष्ठिर ने लंबी साँस खींची। राजसूय यज्ञ के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए उन्हें शान्ति नहीं मिली। राजसूय यज्ञ करने वाले महात्मा राजर्षियों की वैसी महिमा सुनकर तथा पुण्य कर्मों द्वारा उत्तम लोकों की प्राप्ति होती देखकर एवं यज्ञ करने वाले राजर्षि हरिश्वन्द्र का महान् तेज (तथा विशेष वैभव एवं आदर-सत्कार) सुनकर उन के मन में राजसूय यज्ञ करने की इच्छा हुई। तदनन्तर युधिष्ठिर ने अपने समस्त सभासदों का सत्कार किया और उन सब सदस्यों ने भी उनका बड़ा समान किया। अन्त में (सब की सम्मति से) उनका मन यज्ञ करने के ही संकल्प पर दृढ़ हो गया।

राजेन्द्र! कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने उस समय बार-बार विचार करके राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान में ही मन लगाया। अद्भुत बल और पराक्रम वाले धर्मराज ने पुनः अपने धर्म का ही चिन्तन किया और सम्पूर्ण लोकों का हित कैसे हो, इसी ओर वे ध्यान देने लगे। युधिष्ठिर समस्त धर्मात्माओें में श्रेष्ठ थे। वे सारी प्रजा पर अनुग्रह करके सब का समान रूप से हितसाधन करने लगे। क्रोध और अभिमान से रहित होकर राजा युधिष्ठिर ने अपने सेवकों से कह दिया कि ‘देने योग्य वस्तुएँ सब को दी जाँय अथवा सारी जनता का पावना (ऋण) चुका दिया जाय।’ उनके राज्य में ‘धर्मराज आप धन्य हैं। धर्मस्वरूप युधिष्ठिर आप को साधुवाद!’ इस के सिवा और कोई बात नहीं सुनी जाती थी। उस का ऐसा व्यवहार देख सारी प्रजा उनके ऊपर पिता के समान भरोसा रखने लगी। उनके प्रति द्वेष रखने वाला कोई नहीं रहा। इसीलिये वे ‘अजात शत्रु’ नाम से प्रसिद्ध हुए।

महाराज युधिष्ठिर सब को आत्मीयजनों की भाँति अपनाते, भीमसेन सब की रखा करते, सव्यसाची अर्जुन शत्रुओं के संहार में लगे रहते, बुद्धिमान् सहदेव सब को धर्म का उपदेश दिया करते और नकुल स्वभाव से ही सब के साथ विनयपूर्ण बर्ताव करते थे। इससे उन के राज्य के सभी जनपद कलहशून्य, निर्भय, स्वधर्म परायण तथा उन्नतिशील थे। वहाँ उन की इच्छा के अनुसार समय पर वर्षा होती थी। उन दिनों राजा के सुप्रबन्ध से व्याज की आजीविका, यज्ञ की सामग्री, गोरक्षा, खेती और व्यापार- इन सब की विशेष उन्नति होने लगी।

निर्धन प्रजाजनों से पिछले वर्ष का बाकी कर नहीं लिया जाता था तथा चालू वर्ष का कर वसूल करने के लिये किसी को पीड़ा नहीं दी जाती थी। सदा धर्म में तत्पर रहने वाले युधिष्ठिर के शासन काल में रोग तथा अग्नि का प्रकोप आदि कोई भी उपद्रव नहीं था। लुटेरों, ठगों से, राजा से तथा राजा के प्रिय व्यक्तियों से प्रजा के प्रति अत्याचार या मिथ्या व्यवहार कभी नहीं सुना जाता था और आपस में भी सारी प्रजा एक दूसरे से मिथ्या व्यवहार नहीं करती थी। दूसरे राजा लोग विभिन्न देश के कुलीन वैश्यों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर प्रिय करने, उन्हें कर देने, अपने उपार्जित धन-रत्न आदि की भेंट देने तथा संधि-विग्रहादि छः कार्यों में राजा को सहयोग देने के लिये उन के पास आते थे। सदा धर्म में ही लगे रहने वाले राजा युधिष्ठिर के शासन-काल में राजस स्वभाव वाले तथा लोभी मनुष्यों द्वारा इच्छानुसार धन आदि का उपभोग किये जाने पर भी उन का देश दिनों दिन उन्नति करने लगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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