महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 111 श्लोक 1-17

एकादशाधिकशततम (111) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: एकादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
उत्तर दिशा का वर्णन
  • गरुड़ कहते हैं- गालव! इस मार्ग से जाने पर मनुष्य का पाप से उद्धार हो जाता है और वह कल्याणमय स्वर्गीय सुखों का उपभोग करता है; अत: इस उत्तारण [1] के बल से इस दिशा को उत्तर दिशा कहते हैं। (1)
  • गालव! यह उत्तर दिशा उत्कृष्ट सुवर्ण आदि निधियों की अधिष्ठान है इसलिए भी इसका नाम उत्तर है। यह उत्तर मार्ग पश्चिम और पूर्व दिशाओं का मध्यवर्ती बताया गया है। (2)
  • द्विजश्रेष्ठ! इस गौरवशालिनी दिशा में ऐसे लोगों का वास नहीं है, जो सौम्य स्वभाव के न हो, जिन्होंने अपने मन को वश में न किया हो तथा जो धर्म का पालन न करते हों। (3)
  • इसी दिशा में बदरिकाश्रमतीर्थ है, जहाँ सच्चिदानंद स्वरूप श्रीनारायण, विजयशील नरश्रेष्ठ नर और सनातन ब्रहमाजी निवास करते हैं। (4)
  • उत्तर में ही हिमालय के शिखर पर प्रलयकालीन अग्नि के समान तेजस्वी अंतर्यामी भगवान महेश्वर भगवती उमा के साथ नित्य निवास करते हैं। (5)
  • वे भगवान नर और नारायण के सिवा और किसी की दृष्टि में नहीं आते। समस्त मुनिगण, गंधर्व, यक्ष, सिद्ध अथवा देवताओं सहित इन्द्र भी उनका दर्शन नहीं कर पाते हैं। (6)
  • यहाँ सहसत्रों नेत्रों, सहसत्रों चरणों और सहसत्रों मस्तकों वाले एकमात्र अविनाशी श्रीमान भगवान विष्णु ही उन मायाविशिष्ट महेश्वर का साक्षात्कार करते हैं। (7)
  • उत्तर दिशा में ही चंद्रमा का द्विजराज के पद पर अभिषेक हुआ था। वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ गालव! यहीं आकाश से गिरती हुई गंगा को महादेवजी ने अपने मस्तक पर धारण किया और उन्हें मनुष्यलोक में छोड़ दिया। (8)
  • यहीं पार्वतीदेवी ने भगवान महेश्वर को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए कठोर रूप में तपस्या की थी और इसी दिशा में महादेवजी को मोहित करने के लिए काम प्रकट हुआ। फिर उसके ऊपर भगवन शंकर का क्रोध हुआ। उस अवसर पर गिरिराज हिमालय और उमा भी वहाँ विद्यमान थीं इस प्रकार ये सब लोग वहाँ एक ही समय में प्रकाशित हुए। (9)
  • गालव! इसी दिशा में कैलास पर्वत पर राक्षस, यक्ष और गन्धर्वों का आधिपत्य करने के लिए धनदाता कुबेर का अभिषेक हुआ था। उत्तर दिशा में ही रमणीय चैत्ररथवन और वैखानस ऋषियों का आश्रम है। (10-11)
  • द्विजश्रेष्ठ! यहीं मंदाकिनी नदी और मंदराचल हैं। इसी दिशा में राक्षसगण सौगंधिक वन की रक्षा करते हैं। (12)
  • यहीं हरी-हरी घासों से सुशोभित कदलीवन है और यहीं कल्पवृक्ष शोभा पाते हैं। गालव! इसी दिशा में सदा संयम नियम का पालन करने वाले स्वच्छंदचारी सिद्धों के इच्छानुसार भोगों से सम्पन्न एवं मनोनुकूल विमान विचरते हैं। (13)
  • इसी दिशा में अरुंधतिदेवी और सप्तऋषि प्रकाशित होते हैं। इसी में स्वाती नक्षत्र का निवास है और यहीं उसका उदय होता है। (14)
  • इसी दिशा में ब्रहमाजी यज्ञानुष्ठान में प्रवृत होकर नियमित रूप से निवास करते हैं। नक्षत्र, चंद्रमा तथा सूर्य भी सदा इसी में परिभ्रमण करते हैं। (15)
  • द्विजश्रेष्ठ! इसी दिशा में धाम नाम से प्रसिद्ध सत्यवादी महात्मा मुनि श्रीगंगामहाद्वार की रक्षा करते हैं। उनकी मूर्ति, आकृति तथा संचित तपस्या का परिणाम किसी को ज्ञात नहीं होता है। गालव! वे सहसत्रों युगांतकाल तक की आयु इच्छानुसार भोगते हैं। (16-17)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संसार सागर से पार उतारने

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