महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 133 श्लोक 1-14

त्रयस्त्रिंशदधिकशततम (133) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


राजा के लिये कोश संग्रह की आवश्‍यकता, मर्यादा की स्‍थापना और अमर्यादित दस्‍युवृति की निन्‍दा


भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! राजा को चाहिये कि वह अपने तथा शत्रु के राज्‍य से धन लेकर खजाने को भरे। कोश से ही धर्म की वृद्धि होती है और राज्‍य की जड़ें बढ़ती अर्थात सुदृढ़ होती हैं। इसलिये राजा कोश का संग्रह करे, संग्रह करके सादर उसकी रक्षा करे और रक्षा करके निरन्‍तर उसको बढ़ाता रहे; यही राजा का सदा से चला आने वाला धर्म है। जो विशुद्ध आचार-विचार से रहने वाला है, उसके द्वारा कभी कोश संग्रह नहीं हो सकता। जो अत्‍यन्‍त क्रूर है, वह भी कदापि इसमें सफल नहीं हो सकता; अत: मध्‍यम मार्ग का आश्रय लेकर कोश-संग्रह करना चाहिये। यदि राजा बलहीन हो तो उसके पास कोश कैसे रह सकता है? कोशहीन के पास सेना कैसे रह सकती है?

जिनके पास सेना ही नहीं है, उसका राज्‍य कैसे टिक सकता है और राज्‍यहीन के पास लक्ष्‍मी कैसे रह सकती है? जो धन के कारण ऊँचे तथा महत्त्वपूर्ण पद पर पहुँचा हुआ है, उसके धन की हानि हो जाय जो उसे मृत्‍यु के तुल्‍य कष्ट होता है, अत: राजा को कोश, सेना तथा मित्र की संख्‍या बढ़ानी चाहिये। जिस राजा के पास धन का भण्‍डार नहीं है, उसकी साधारण मनुष्‍य भी अवहेलना करते हैं। उससे थोड़ा लेकर लोग संतुष्ट नहीं होते हैं और न उसका कार्य करने में उत्‍साह दिखाते हैं। लक्ष्‍मी के कारण ही राजा सर्वत्र बड़ा भारी आदर-सत्‍कार पाता हैं। जैसे कपड़ा नारी के गुप्‍त अंगों को छिपाये रखता है, उसी प्रकार लक्ष्‍मी राजा के सारे दोषों को ढक लेती है। पहले के तिरस्‍कृत हुए मनुष्‍य इस राजा को बढ़ती हुई समृद्धि को देखकर जलते रहते हैं और अपने वध की इच्‍छा रखने वाले उस राजा का ही कपटपूर्वक आश्रय ले उसी तरह उसकी सेवा करते हैं, जैसे कुत्ते अपने घातक चाण्‍डाल की सेवा में रहते हैं। भारत! ऐसे नरेश को कैसे सुख मिलेगा? अत: राजा को सदा उद्यम ही करना चाहिये, किसी के सामने झुकना नहीं चाहिये; क्‍योंकि उद्यम ही पुरुषत्‍व है। जैसे सूखी लकड़ी बिना गाँठ के ही टूट जाती है, परंतु झुकती नहीं है, उसी प्रकार राजा नष्ट भले ही हो जाय, परंतु उसे कभी दबना नहीं चाहिये। वह उनकी शरण लेकर मृगों के साथ भले ही विचरे; किंतु मर्यादा भंग करने वाले डाकुओं के साथ कदापि न रहे।

डाकुओं को लूट-पाट या हिंसा आदि भयानक कर्मों के लिये अनायास ही सेना सुलभ हो जाती है। सर्वथा मर्यादा शून्‍य मनुष्‍य से सब लोग उद्विग्‍न हो उठते हैं। केवल निर्दयतापूर्ण कर्म करने वाले पुरुष की ओर से डाकू भी शंकित रहते हैं। राजा को ऐसी ही मर्यादा स्‍थापित करनी चाहिये, जो सब लोगो के चित्त को प्रसन्‍न करने वाली हो। लोक में छोटे-से काम में भी मर्यादा का ही मान होता है। संसार में ऐसे भी मनुष्‍य हैं, जो यह निश्‍चय किये बैठे हैं, कि ‘लोक और परलोक है ही नहीं।’ ऐसा नास्तिक मानव भय की शंका का स्‍थान है, उस पर कभी विश्‍वास नहीं करना चाहियें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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