महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 322 श्लोक 1-14

द्वाविंशत्‍यधिकत्रिशततम (322) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: द्वाविंशत्‍यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


शुभाशुभ कर्मों का परिणाम कर्ता को अवश्‍य भोगना पड़ता है, इसका प्रतिपादन

युधिष्ठिरने कहा—पितामह! यदि दान, यज्ञ, तप अथवा गुरु- शुश्रूषा करने से कोई फल मिलता है तो वह मुझे बताइये। भीष्‍मजी ने कहते हैं—राजन्! जब बुद्धि काम-क्रोध आदि अनर्थों से युक्‍त हो जाती है, जब उससे प्रेरित हुए मनुष्‍य का मन पाप में प्रवृत्त होने लगता है। फिर वह मनुष्‍य दोषयुक्‍त कर्म करके महान् क्‍लेश मे पड़ जाता है।पापकर्म करने वाले दरिद्र मानव दुर्भिक्ष से दुर्भिक्ष को, क्‍लेश से क्‍लेश को तथा भय से भय को पाते हुए मेरे हुओं से भी अधिक मृतकतुल्‍य हो जाते हैं। जो श्रद्धालु, जितेन्द्रिय, धनसम्‍पन्‍न तथा शुभकर्म- परायण होते हैं, वे उत्‍सव से अधिक उत्‍सव को, स्‍वर्ग से अधिक स्‍वर्ग को तथा सुख से अधिक सुख को पाते हैं। नास्तिक मनुष्‍यों के हाथ में हथकड़ी डालकर राजा उन्‍हें राज्‍य से दूर निकाल देता है और वे उन जंगलों में चले जाते हैं, जो मतवाले हाथियों के कारण दुर्गभ तथा सर्प और चोर आदि के भय से भरे हुए होते हैं। इससे बढ़कर उन्‍हें और क्‍या दण्‍ड मिल सकता है ? जिन्‍हें देवपूजा और अतिथि-सत्‍कार प्रिय है, जो उदार हैं तथा श्रेष्‍ठ पुरुष जिन्‍हें अच्‍छे लगते हैं, वे पुण्‍यात्‍मा मनुष्‍य अपने दाहिने हाथ के समान मंगलकारी एवं मन को वश में रखने वाले योगियों को ही प्राप्‍त होने योग्‍य मार्ग पर आरूढ़ होत हैं। जिनका उद्वेश्‍य धर्म पालन नहीं है, ऐसे मनुष्‍य मानव-समाज के भीतर वैसे ही समझे जाते हैं, जैसे धानों में थोथा धान और पक्षियों में सड़ा अंडा। जिस-जिस मनुष्‍य ने जैसा कर्म किया है, वह उसके पीछे लगा रहता है। यदि कर्ता पुरुष शीघ्रतापूर्वक दौड़ता है तो वह भी उतनी ही तेजी के साथ उसके पीछे जाता है। जब वह सोता है, तब उसका कर्मफल भी उसी के साथ सो जाता है, जब वह खड़ा होता है, तब वह भी उसके पास ही खड़ा रहता है और जब मनुष्‍य चलता है, तब वह भी उसके पीछे-पीछे चलने लगता है। इनता ही नहीं, कोई कार्य करते समय भी कर्म-संस्‍कार उसका साथ नहीं छोड़ता। सदा छाया के समान पीछे लगा रहता है। जिस-जिस मनुष्‍य ने अपने-अपने पूर्वजन्‍मों में जैसे-जैसे कर्म किये हैं, वह अपने ही किये हुए उन कर्मों का फल सदा अकेला ही भोगता है। अपने-अपने कर्म का फल एक धरोहर के समान है, वह शास्‍त्र विधान के अनुसार सुरक्षित रहता है। उपयुक्‍त अवसर आने पर यह काल इस प्राणि समुदाय को कर्मानुसार खींच ले जाता है। जैसे फूल और फल किसी की प्रेरणा बिना ही अपने समय पर वृक्षों में लग जाते हैं, उसी प्रकार पहले के किये हुए कर्म भी अपने फलभोग के समय का उल्‍लंघन नहीं करते हैं। सम्‍मान-अपमान, लाभ-हानि तथा उन्‍नति-अवनति—ये पूर्वजन्‍म के कर्मों के अनुसार पग-पग पर प्राप्‍त होते हैं और प्रारब्‍ध भोग के पश्‍चात् पुन: निवृत्त हो जोत हैं। दु:ख अपने ही किये हुए कर्मों का फल है और सुख भी अपने ही पूर्वकृत कर्मों का परिणाम है। जीव माता की गर्भशय्या में आते ही पूर्व शरीर द्वारा उपार्जित सुख-दु:ख का उपभोग करने लगता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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