महाभारत आदि पर्व अध्याय 93 श्लोक 1-12

त्रिनवतितम (93) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: त्रिनवतितम अध्‍याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


राजा ययाति का वसुमान और शिबि के प्रतिग्रह को अस्‍वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओं के साथ स्‍वर्ग में जाना

वसुमान ने कहा- नरेन्‍द्र! मैं उषदश्व का पुत्र वसुमान हूँ और आपसे पूछ रहा हूँ। यदि स्‍वर्ग या अन्‍तरिक्ष में मेरे लिये भी कोई विख्‍यात लोक हों तो बताइये। महात्‍मन्! मैं आपको पारलौकिक धर्म का ज्ञाता मानता हूँ।

ययाति ने कहा- राजन्! पृथ्‍वी आकाश और दिशाओं में जितने प्रदेश को सूर्यदेव अपनी किरणों से तपाते और प्रकाशित करते हैं; उतने लोक तुम्‍हारे लिये स्‍वर्ग में स्थित हैं। वे अन्‍तवान् न होकर चिरस्‍थायी हैं और आपकी प्रतीक्षा करते हैं।

वसुमान बोले- राजन्! वे सभी लोक मैं आपके लिये देता हूं, आप नीचे न गिरें। मेरे लिये जितने पुण्‍य लोक हैं, वे सब आपके हो जायं। धीमन्! यदि आपको प्रतिग्रह लेने में दोष दिखाई देता हो तो एक मुट्ठी तिनका मुझे मूल्‍य के रुप में देकर मेरे इन सभी लोकों को खरीद लें।

ययाति ने कहा- मैंने इस प्रकार कभी झूट-मूठ की खरीद-बिक्री की हो अथवा छलपूर्वक व्‍यर्थ कोई वस्‍तु ली हो, इसका मुझे स्‍मरण नहीं है। मैं कालचक्र से शंकित रहता हूँ। जिसे पूर्ववर्ती अन्‍य महापुरुषों ने नहीं किया वह कार्य मैं भी नहीं कर सकता हूं; क्‍योंकि मैं सत्‍कर्म करना चाहता हूँ।

वसुमान बोले- राजन्! यदि आप खरीदना नहीं चाहते तो मेरे द्वारा स्‍वत: अर्पण किये हुए पुण्‍य लोकों को ग्रहण कीजिये। नरेन्‍द्र! निश्चय जानिये, मैं उन लोकों में नहीं जाऊंगा। वे सब आपके ही अधिकार में रहें।

शिबि ने कहा- तात! मैं उशीनरपुत्र शिबि आपसे पूछता हूँ। यदि अन्‍तरिक्ष या स्‍वर्ग में मेरे भी पुण्‍यलोक हों, तो बताइये; क्‍योंकि मैं आपको उक्त धर्म का ज्ञाता मानता हूँ।

ययाति बोले- नरेन्‍द्र! जो-जो साधु पुरुष तुमसे कुछ मांगने के लिये आये, उनका तुमने वाणी से कौन कहे, मन से भी अपमान नहीं किया। इस कारण स्‍वर्ग में तुम्‍हारे लिये अनन्‍त लोक विद्यमान हैं, जो विद्युत के समान तेजोमय, भाँति-भाँति के सुमधुर शब्‍दों से युक्त तथा महान् हैं।

शिबि ने कहा- महाराज! यदि आप खरीदना नहीं चाहते तो मेरे द्वारा स्‍वयं अर्पण किये हुए पुण्‍य लोकों को ग्रहण कीजिये। उन सबको देकर निश्चय ही मैं उन लोकों में नहीं जाऊंगा। वे लोक ऐसे हैं,जहाँ जाकर धीर पुरुष कभी शोक नहीं करते।

ययाति बोले- नरदेव शिबि! जिस प्रकार तुम इन्‍द्र के समान प्रभावशाली हो, उसी प्रकार तुम्‍हारे वे लोक भी अनन्‍त हैं; तथापि दूसरे के दिये हुए लोक में विहार नहीं कर सकता, इसीलिये तुम्‍हारे दिये हुए का अभिनन्‍दन नहीं करता।

अष्टक ने कहा- राजन्! यदि आप हममें से एक-एक के दिये हुए लोकों को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण नहीं करते तो हम सब लोक अपने पुण्‍य लोक आपकी सेवा में समर्पित करके नरक (भूलोक) में जाने को तैयार हैं।

ययाति बोले- मैं जिसके योग्‍य हूं, उसी के लिये यत्न करो; क्‍योंकि साधु पुरुष सत्‍य का ही अभिनन्‍दन करते हैं। मैंने पूर्वकाल में जो कर्म नहीं किया, उसे अब भी करने योग्‍य नहीं समझता।

अष्टक ने कहा- आकाश में ये किसके पांच सुवर्णमय रथ दिखायी देते हैं, जिन पर आरूढ़ होकर मनुष्‍य सनातन लोकों में जाने की इच्‍छा करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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