चतुर्नवत्यधिकशततम (194) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्नवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
अध्यात्मज्ञान का निरूपण युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! शास्त्रों में मनुष्य के लिये अध्यात्म के नाम से जिसका विचार किया जाता है, वह अध्यात्म ज्ञान क्या है और कैसा है? यह मुझे बताइये। ब्रह्मन, इस चराचर जगत की सृष्टि किससे हुई है और प्रलयकाल में इसका लय किस प्रकार होता है; इस विषय का मुझसे वर्णन कीजिये। भीष्म जी ने कहा- तात! कुंतीनंदन! तुम जिस अध्यात्म ज्ञान के विषय में पूछ रहे हो, उसकी व्याख्या मैं तुम्हारे लिये करता हूँ, वह परम कल्याणकारी और सुखस्वरूप है। आचार्यों ने सृष्टि और प्रलय की व्याख्या के साथ अध्यात्म ज्ञान का विवेचन किया है, जिसे जानकार मनुष्य इस संसार में सुख और प्रसन्नता का भागी होता है। उसे अभीष्ट फल की प्राप्ति भी होती है। वह अध्यात्मज्ञान समस्त प्राणियों के लिये हितकर है। पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि- ये पाँच महाभूत सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के स्थान है। जैसे लहरें समुद्र से प्रकट होकर फिर उसी में लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ये पाँच महाभूत भी जिस परमात्मा से उत्पन्न हुए है, उसी में सब प्राणियों के सहित बारंबार लीन होते हैं। जैसे कछुआ अपने अंगों को फैलाकर पुन: समेट लेता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों के आत्मा परब्रह्म परमेश्वर अपने रचे हुए सम्पूर्ण भूतों को फैलाकर फिर अपने भीतर ही समेट लेते हैं। सम्पूर्ण भूतों की सृष्टि करने वाले परमात्मा ने सब प्राणियों के शरीर में पाँच ही महाभूतों को स्थापित किया है; परंतु उनमें विषमता कर दी है- किसी महाभूत के अंश को अधिक और किसी के अंश को कम करके रखा है। उस वैषम्य को साधारण जीव नहीं देख पाता। शब्दगुण, श्रोत्र इन्द्रिय और शरीर के सम्पूर्ण छिद्र- ये तीन आकाश के कार्य हैं। स्पर्श, चेष्टा और त्वगिन्द्रिय- ये तीन वायु के कार्य माने गये हैं। रूप, नेत्र और परिपाक- ये तीन तेज के कार्य बताये जाते हैं। रस, जिहृा तथा क्लेद (गीलापन)- ये तीन जल के गुण अर्थात कार्य माने गये हैं। गन्ध, घ्राणेन्द्रिय और शरीर- ये तीन भूमि के गुण अर्थात कार्य हैं। इस प्रकार इस शरीर में पाँच महाभूत और छठा मन है; ऐसा बताया जाता है। भरतनन्दन! श्रोत्र आदि पाँच इन्द्रियां और मन- ये जीवात्मा को विषयों का ज्ञान कराने वाले हैं। शरीर में इन छ: के अतिरिक्त सातवीं बुद्धि और आठवाँ क्षेत्रज्ञ है। इन्द्रियां विषयों को ग्रहण कराती हैं। मन संकल्प-विकल्प करता है। बुद्धि निश्चय कराने वाली है और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) साक्षी की भाँति स्थित रहता है। दोनों पैरों के तलों से लेकर ऊपर तक जो शरीर स्थित है, उसे जो साक्षीभूत चेतन ऊपर-नीचे सब ओर से देखता है, वह इस सारे शरीर के भीतर और बाहर सब जगह व्याप्त है। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। सभी मनुष्यों को अपनी इन्द्रियों (और मन-बुद्धि) की देख-भाल करके उनके विषय में पूरी जानकारी रखनी चाहिये; क्योंकि सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण उन्हीं का आश्रय लेकर रहते हैं। मनुष्य अपनी बुद्धि के बल से इन सबको और जीवों के आवागमन की अवस्था को जानकर शनै:-शनै: उस पर विचार करने से उत्तम शान्ति पा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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