महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 97 श्लोक 1-16

सप्तनवतितम (97) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तनवतितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य का तथा उनकी आत्माशुद्धि और सद्गति का वर्णन


युधिष्ठिर ने पूछा- नरेश्वर! क्षत्रिय धर्म से बढ़कर पापपूर्ण दूसरा कोई धर्म नहीं है; क्योंकि राजा किसी देश पर चढ़ाई करने और युद्ध छेड़ने के द्वारा महान जनसंहार कर डालता है। विद्वान्! भरतश्रेष्ठ! अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि राजा को किस कर्म से पुण्यलोकों की प्राप्ति होती है; अतः यही मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा- राजन्! पापियों को दण्ड देने और सत्पुरुषों को आदरपूर्वक अपनाने से तथा यज्ञों का अनुष्ठान और दान करने से राजा लोग सब प्रकार के दोषों से छूटकर निर्मल एवं शुद्ध हो जाते हैं। जो राजा विजय की कामना रखकर युद्ध के समय प्राणियों को कष्ट पहुँचाते हैं, वे ही विजय प्राप्त कर लेने के बाद पुनः सारी प्रजा की उन्नति करते हैं। वे दान, यज्ञ और तपके प्रभाव से अपने सारे पाप नष्ट कर डालते हैं; फिर तो प्राणियों पर अनुग्रह करने के लिये उनके पुण्य की वृद्धि होती है। जैसे खेत को निराने वाला किसान जिस खेत की निराई करता है, उसकी घास आदि के साथ-साथ कितने ही धान के पौधों को भी काट डालता है तो भी धान नष्ट नहीं होता है (बल्कि निराई करने के पश्चात् उसकी उपज और बढ़ती है)।

इसी प्रकार जो युद्ध में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करके राज सैनिक वध करने योग्य शत्रुओं का अनेक प्रकार से वध करते हैं, राजा के उस कर्म का यही पूरा-पूरा प्रायश्चित है कि उस युद्ध के पश्चात् उस राज्य के प्राणियों की पुनः सब प्रकार से उन्नति करे। जो राजा समस्त प्रजा को धनक्षय, प्राणनाश और दुःखों से बचाता है, लुटेरों से रक्षा करके जीवन-दान देता है, वह प्रजा के लिये धन और सुख देने वाला परमेश्वर माना गया है। वह राजा सम्पूर्ण यज्ञों द्वारा भगवान की आराधना करके प्राणियों को अभय-दान देकर इहलोक में सूख भोगता है और परलोक में भी इन्द्र के समान स्वर्गलोक का अधिकारी होता है। ब्राह्मण की रक्षा का अवसर आने पर जो आगे बढ़कर शत्रुओं के साथ युद्ध छेड़ देता है और अपने शरीर को यूप की भाँति निछावर कर देता है, उसका वह त्याग अनन्त दक्षिणाओं से युक्त यज्ञ के ही तुल्य है। जो निर्भय हो शत्रुओं पर वर्णों की वर्षा करता और स्वयं भी बाणों का आघात सहता है, उस क्षत्रिय के लिये उस कर्म से बढ़कर देवता लोग इस भूतल पर दूसरा कोई कल्याणकारी कार्य नहीं देखते हैं।

युद्धस्थल में उस वीर योद्धा की त्वचा को जितने शस्त्र विदीर्ण करते हैं, उतने ही सर्वकामनापूरक अक्षय लोक उसे प्राप्त होते हैं। समरभूमि में उसके शरीर से जो रक्त बहता है, उस रक्त के साथ ही सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। युद्ध में बाणों से पीड़ित हुआ क्षत्रिय जो-जो दुःख सहता है, उस-उस कष्ट के द्वारा उसके तप की ही उत्तरोत्तर वृद्धि होती है; ऐसी धर्मज्ञ पुरुषों की मान्यता है। जैसे समस्त प्राणी बादल सक जीवनदायक जल की इच्छा रखते हैं, उसी प्रकार शूरवीर से अपनी रक्षा चाहते हुए डरपोक एवं नीचे श्रेणी के मनुष्य युद्ध में वीर योद्धाओं के पीछे खड़े रहते हैं। अभयकाल में समान ही उस भय के समय भी यदि कोई शूरवीर उस भीरू पुरुष की सकुशल रक्षा कर लेता है तो उसके प्रति वह अपने अनुरूप उपकार एवं पुण्य करता है। यदि पृष्ठवर्ती पुरुष को वह अपने-जैसा न बना सके तो भी पूर्व कथित पुण्य का भागी तो होता ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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