महाभारत शल्य पर्व अध्याय 62 श्लोक 1-22

द्विषष्टितम (62) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: द्विषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


पाण्डवों का कौरव शिबिर में पहुँचना, अर्जुन के रथ का दग्ध होना और पाण्डवों का भगवान श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजना


संजय कहते हैं- राजन! तदनन्तर परिघ के समान मोटी भुजाओं वाले सब नरेश अपना-अपना शंख बजाते हुए शिबिर में विश्राम करने के लिये प्रसन्नतापूर्वक चल दिये। प्रजानाथ! हमारे शिबिर की ओर जाते हुए पाण्डवों के पीछे-पीछे महाधनुर्धर युयुत्सु, सात्यकि, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रौपदी के सभी पुत्र तथा अन्य सब धनुर्धर योद्धा भी उन शिबिरों में गये। तत्पश्चात कुन्ती के पुत्रों ने पहले दुर्योधन के शिबिर में प्रवेश किया। जैसे दर्शकों के चले जाने पर सूना रंगमण्डप शोभाहीन दिखायी देता है, उसी प्रकार जिसका स्वामी मारा गया था, वह शिविर उत्सव शून्य नगर और नागर रहित सरोवर के समान श्रीहीन जान पड़ता था। वहाँ रहने वाले लोगों में अधिकांश स्त्रियां और नपुंसक थे तथा बूढ़े मन्त्री अधिष्ठाता बनकर उस शिबिर का संरक्षण कर रहे थे। राजन! वहाँ दुर्योधन के आगे-आगे चलने वाले सेवकगण मलिन भगवा वस्त्र पहनकर हाथ जोड़े हुए इन पाण्डवों के समक्ष उपस्थित हुए।

महाराज! कुरुराज के शिबिर में पहुँकर रथियों में श्रेष्ठ पाण्डव अपने रथों से नीचे उतरे। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात सदा अर्जुन के प्रिय एवं हित में तत्पर रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने गाण्डीवधारी अर्जुन से कहा- 'भरतवंशशिरोमणे! तुम गाण्डीव धनुष को और इन दोनों बाणों से भरे हुए अक्षय तरकसों को उतार लो। फिर स्वयं भी उतर जाओ! इसके बाद मैं उतरूँगा! अनघ! ऐसा करने में ही तुम्हारी भलाई है।' वीर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने वह सब वैसे ही किया। तदनन्तर परम बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण घोड़ों की बागडोर छोड़कर गाण्डीवधारी अर्जुन के रथ से स्वयं भी उतर पड़े। समस्त प्राणियों के ईश्वर परमात्मा श्रीकृष्ण के उतरते ही गाण्डीधारी अर्जुन का ध्वज स्वरूप दिव्य वानर उस रथ से अन्तर्धान हो गया। पृथ्वीनाथ! इसके बाद अर्जुन का वह विशाल रथ, जो द्रोण और कर्ण के दिव्यास्त्रों द्वारा दग्धप्राय हो गया था, तुरंत ही आग से प्रज्वलित हो उठा। गाण्डीवधारी का वहाँ रथ उपासंग, बागडोर, जूआ, बन्धुरकाष्ठ और घोड़ों सहित भस्म होकर भूमि पर गिर पड़ा।

प्रभो! नरेश्वर! उस रथ को भस्मीभूत हुआ देख समस्त पाण्डव आश्चर्यचकित हो उठे और अर्जुन ने भी हाथ जोड़कर भगवान के चरणों में बारंबार प्रणाम करके प्रेमपूर्वक पूछा- 'गोविन्द! यह रथ अकस्मात कैसे आग से जल गया? भगवन! यदुनन्दन! यह कैसी महान आश्चर्य की बात हो गयी? महाबाहो! यदि आप सुनने योग्य समझे तो इसका रहस्य मुझे बतावें।' श्रीकृष्ण ने कहा- शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन! यह रथ नाना प्रकार के अस्त्रों द्वारा पहले ही दग्ध हो चुका था; परंतु मेरे बैठे रहने के कारण समरांगण में भस्म होकर गिर न सका। कुन्तीनन्दन! आज जब तुम अपना अभीष्ट कार्य पूर्ण कर चुके हो, तब मैंने इसे छोड़ दिया है; इसलिये पहले से ही ब्रह्मास्त्र के तेज से दग्ध हुआ यह रथ इस समय बिखरकर गिर पड़ा है। इसके बाद शत्रुओं का संहार करने वाले भगवान श्रीकृष्ण किंचित मुस्कराते हुए वहाँ राजा युधिष्ठिर को हृदय से लगाकर कहा- कुन्तीनन्दन! सौभाग्य से आपकी विजय हुई और सारे शत्रु परास्त हो गये। राजन! गाण्डीवधारी अर्जुन, पाण्डुकुमार भीमसेन, आप और माद्रीपुत्र पाण्डुनन्दन नकुल-सहदेव -ये सब-के-सब सकुशल हैं तथा जहाँ वीरों का विनाश हुआ और तुम्हारे सारे शत्रु काल के गाल में चले गये, उस घोर संग्राम से तुम लोग जीवित बच गये, यह बड़े सौभाग्य की बात है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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