महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 261 श्लोक 1-18

एकषष्‍टयधिकद्विशततम (261) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: शान्ति पर्व: एकषष्‍टयधिकद्विशततम श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

जाजलि की घोर तपस्‍या, सिर पर जटाओं में पक्षियों के घोंसला बनाने से उनका अभिमान और आकाशवाणी की प्रेरणा से उनका तुलाधार वैश्‍य के पास जाना

भीष्‍म जी ने कहा- राजन्! धर्म के विषय में जाजलि के साथ तुलाधार वैश्‍य की जो बातें हुई थीं, उसी प्राचीन इतिहास का विद्वान् पुरुष यहाँ उदाहरण दिया करते हैं। प्राचीन काल में जाजलि नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण थे, जो वन में ही रहते और विचरते थे। उन महातपस्‍वी जाजलि ने समुद्र के तट पर जाकर बड़ी भारी तपस्‍या की। वे नियम से रहते, नियमित भोजन करते और वल्‍कल, मृगचर्म एवं जटा धारण किया करते थे। वे बुद्धिमान् मुनि बहुत वर्षों तक शरीर पर मैल और कीचड़ धारण किये खडे़ रहे। राजन्! फिर किसी समय समुद्र तटस्‍थ जल युक्‍त प्रदेश में निवास करने वाले वे महातेजस्‍वी विप्रर्षि सम्‍पूर्ण लोकों को देखने के लिये मन के समान तीव्र गति से विचरण करने लगे। वन और काननों सहित समुद्रपर्यन्‍त पृथ्‍वी का निरीक्षण करके समुद्र तटवर्ती सजल प्रदेश में निवास करते समय जाजलि मुनि कभी इस प्रकार विचार करने लगे। इस चराचर जगत् में मेरे सिवा ऐसा कोई दूसरा मनुष्‍य नहीं है, जो मेरे साथ जल में विचरने और आकाश में घूमने-फिरने की शक्ति रखता हो।

राक्षसों से अदृश्‍य रहकर जलयुक्‍त प्रदेश में निवास करने वाले जाजलि मुनि ने जब इस प्रकार कहा, तब अदृश्‍य पिशाचों ने उनसे कहा, ‘मुने! तुम्‍हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। ‘द्विजश्रेष्ठ! काशी में महायशस्‍वी तुलाधार रहते हैं, जो वणिक्‌ धर्म का पालन करते है; किंतु वे भी ऐसी बात नहीं कह सकते, जैसी आज आप कह रहे हैं। उन अदृश्‍य भूतों के ऐसा कहने पर महातपस्‍वी जाजलि ने उनसे कहा-‘क्‍या मैं उन ज्ञानी एवं यशस्‍वी तुलाधार का दर्शन कर सकता हॅू। ऐसा कहते हुए उन महर्षि को समुद्र तटवर्ती जल प्रदेश से बाहर निकालकर राक्षसों ने उनसे कहा-‘द्विजश्रेष्ठ! इस मार्ग का आश्रय लेकर काशीपुरी चले जाइये’। उन अदृश्‍य भूतों के ऐसा कहने पर जाजलि मुनि उदास होकर काशी में गये और तुलाधार के पास पहुँच कर उससे इस प्रकार बोले। युधिष्ठिर ने पूछा-तात! पूर्वकाल में जाजलि ने कौन सा ऐसा दुष्‍कर कार्य किया था, जिससे वे परम सिद्धि को प्राप्‍त हो गये, यह मुझे विस्‍तारपूर्वक बताने की कृपा करें।

भीष्‍म जी ने कहा- बेटा! जाजलि मुनि महान् तपस्‍वी थे और अत्‍यन्‍त घोर तपस्‍या में लगे हुए थे। वे प्रतिदिन सांयकाल और प्रात:काल स्‍नान एवं संध्‍योपासना करके विधिपूर्वक अग्निहोत्र करते और वेदों के स्‍वाध्‍याय में तत्‍पर रहते थे। ब्रह्मार्षि जाजलि वानप्रस्‍थ के धर्म की विधि को जानने और पालने वाले थे, वे अपने तेज से प्रज्‍वलित हो रहे थे। वे वन में रहकर तपस्‍या में ही लगे रहते, किंतु अपने धर्म की कभी अवहेलना नहीं करते थे। वे वर्षा के दिनो में खुले आकाश के नीचे सोते और हेमन्‍त ऋतु में पानी के भीतर बैठा करते थे। इसी तरह गर्मी के महीनों में कड़ी धूप और लू का कष्ट सहते थे; परंतु उनको वास्‍तविक धर्म का ज्ञान नहीं हुआ। वे पृथ्‍वी पर ही लोटते और तरह-तरह से इस प्रकार सोते, जिससे दु:ख और कष्ट का ही अधिक अनुभव होता था। तदनन्‍तर किसी समय वर्षा ऋतु आने पर वे मुनि खुले आकाश के नीचे खडे़ हो गये और आकाश से जो जल की मूसलाधार वृष्टि होती थी, उसके आघात को बारंबार अपने मस्‍तक पर ही सहने लगे। प्रभो! उनके सिर के बाल बराबर भींगे रहने के कारण उलझ कर जटा के रूप में परिणत हो गये। सदा वन में ही विचरण करने के कारण उनके शरीर पर मैल जम गयी थी; परंतु उनका अन्‍त:करण निर्मल हो गया था।

Next.png


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः