महाभारत सभा पर्व अध्याय 78 श्लोक 1-17

अष्टसप्ततितम (78) अध्‍याय: सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)

Prev.png

महाभारत: सभा पर्व: अष्टसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र आदि से विदा लेना, विदुर का कुन्ती को अपने यहाँ रखने का प्रस्ताव और पाण्‍डवों को धर्मपूर्वक रहने का उपदेश देना

युधिष्ठिर बोले- मैं भरतवंश के समस्‍त गुरुजनों से वन में जाने की आज्ञा चाहता हूँ। बडे़-बूढे़ पितामह भीष्‍म, राजा सोमदत्त, महाराज बाह्लिक, गुरुवर द्रोण और कृपाचार्य, अश्‍वत्‍थामा, अन्‍यान्‍य नृपतिगण, विदुर, राजा धृतराष्‍ट्र, उनके सभी पुत्र, युयुत्सु, संजय तथा दूसरे सब सदस्यों से पूछ-कर सबकी आज्ञा लेकर वन में जाता हूँ, फिर लौटकर आप लोगों का दर्शन करूँगा।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- राजन्! युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर सब कौरव लाज के मारे सन्न रह गये, कुछ भी उत्तर न दे सके। उन्‍होंने मन-ही-मन उस बुद्धिमान युधिष्ठिर के कल्‍याण का चिन्‍तन किया।

विदुर बोले- कुन्‍तीकुमारो! राजपुत्री आर्या कुन्‍ती वन में जाने लायक नहीं हैं। वे कोमल अगों वाली और वृद्धा हैं, सदा सुख और आराम के ही योग्‍य हैं; अत: वे मेरे ही घर में सत्‍कारपूर्वक रहेगी। यह बात तुम सब लोग जान लो। मेरी शुभ-कामना है कि तुम वहाँ सर्वथा नीरोग एवं सुख से रहो।

पाण्‍डवों ने कहा- बहुत अच्‍छा, ऐसा ही हो। इतना कहकर वे सब फिर बोले- 'अनघ! आप हमें जैसा कहें- जैसी आज्ञा दें, वही शिरोचार्य है। आप हमारे पितृव्‍य अत: पिता के ही तुल्‍य हैं। हम सब (पिता के भाई) हैं, हम सब भाई आपकी शरण में हैं। विद्वन्! आप जैसी आज्ञा दें, वही हमें मान्‍य है; क्‍योंकि आप हमारे परमगुरु हैं। महामते! इसके सिवा और भी जो कुछ हमारा कर्तव्‍य हो, वह हमें बताईये'।

विदुर बोले- भरतकुलभूषण युधिष्ठिर! तुम मुझसे यह जान लो कि अधर्म से पराजित होने वाला कोई भी पुरुष अपनी उस पराजय के लिये दुखी नहीं होता। तुम धर्म के ज्ञाता हो। अर्जुन युद्ध में विजय पाने वाले हैं। भीमसेन शत्रुओं का नाश करने में समर्थ हैं। नकुल आवश्‍यक वस्‍तुओं को जुटाने में कुशल हैं। सहदेव संयमी हैं तथा ब्रह्मर्षि धौम्‍य जी ब्रह्मावेत्ताओं के शिरोमणि हैं। एवं धर्मपरायणा द्रौपदी भी धर्म ओर अर्थ के सम्‍पादन कुशल है। तुम लोग आपस में एक दूसरे के प्रिय हो, तुम्‍हें देखकर सबको प्रसन्‍नता होती है। शत्रु तुममें भेद या फूट नहीं डाल सकते, इस जगत् में कौन है जो तुम लोगों को न चाहता हो। भारत! तुम्‍हारा यह क्षमाशीलता का नियम सब प्रकार से कल्‍याणकारी है।

इन्‍द्र के समान पराक्रमी शत्रु भी इसका सामना नहीं करा सकता। पूर्वकाल में मेरूसावर्णि ने हिमालय पर तुम्‍हें धर्म और ज्ञान का उपदेश दिया है, वारणावत नगर में श्रीकृष्‍ण द्वैपायन व्यास जी ने, भृगुतुंग पर्वत पर परशुराम जी ने तथा दृषद्वती के तट पर साक्षात् भगवान शंकर ने तुम्‍हे अपने सदुपदेश से कृतार्थ किया है। अंजन पर्वत पर तुमने महर्षि असित का भी उपदेश सुना है। कल्‍माषी नदी के किनारे निवास करने वाले महर्षि भृगु ने भी तुम्‍हें उपदेश देकर अनुगृहित किया है। देवर्षि नारद जी सदा तुम्‍हारी देख-भाल करते हैं और तुम्‍हारे ये पुरोहित धौम्‍य जी तो सदा ही साथ रहते हैं। ऋषियों द्वारा सम्मानित उस परलोक विषयक विज्ञान का तुम कभी त्‍याग न करना। पाण्‍डुनन्‍दन! तुम अपनी बुद्धि से इलानन्‍दन पुरूरवा को भी पराजित करते हो।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः