महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 104 श्लोक 1-14

चतुरधिकशततम (104) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


राज्य, खजाना और सेना आदि से वंचित हुए असहाय क्षेमदर्शी राजा के प्रति कालकवृक्षीय मुनि का वैराग्यपूर्ण उपदेश

युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! यदि राजा धर्मात्मा हो और उद्योग करते रहने पर भी धन न पा सके, उस अवस्था में यदि मन्त्री उसे कष्ट देने लगें और उसके पास खजाना तथा सेना भी न रह जाय तो सुख चाहने वाले उस राजा को कैसे काम चलाना चाहिये। भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में यह क्षेमदर्शी का इतिहास जगत में बार-बार कहा जाता है। उसी को मैं तुमसे कहूँगा। तुम ध्यान देकर सुनो। हमने सुना है कि प्राचीनकाल में एक बार कोसलराजकुमार क्षेमदर्शी को बड़ी कठिन विपत्ति का सामना करना पड़ा। उसकी सारी सैनिक शक्ति नष्ट हो गयी। उस समय वह कालकवृक्षीय मुनि के पास गया और उनके चरणों में प्रणाम करके उसने उस विपत्ति से छुटकारा पाने का उपाय पूछा।

ब्रह्मन! मनुष्य धन का भागीदार समझा जाता है; किंतु मेरे जैसा पुरुष बार-बार उद्योग करने पर भी यदि राज्य न पा सके तो उसे क्या करना चाहिये। साधुशिरोमणे! आत्मघात करने, दीनता दिखाने, दूसरों की शरण में जाने तथा इसी तरह के और भी नीच कर्म करने की बात छोड़कर दूसरा कोई उपाय हो तो वह मुझे बताइये। जो मानसिक अथवा शारीरिक रोग से पीड़ित है, ऐसे मनुष्य को आप जैसे धर्मज्ञ और कृतज्ञ महात्मा ही शरण देने वाले होते हैं। मनुष्य को जब कभी विषय भोगों से वैराग्य होता है, तब विरक्त होने पर वह हर्ष और शोक को त्याग देता है तथा ज्ञानमय धन पाकर नित्य सुख का अनुभव करने लगता है। जिनके सुख का आधार धन है, अर्थात जो धन से ही सुख मानते है, उन मनुष्यों के लिये मैं निरन्तर शोक करता हूँ; क्योंकि मेरे पास धन बहुत था, परंतु वह सब सपने में मिली हुई सम्पत्ति की तरह नष्ट हो गया। मेरी समझ में जो अपनी विशाल सम्पत्ति को त्याग देते है वे अत्यन्त दुष्कर कार्य करते हैं। मेरे पास तो अब धन के नाम पर कुछ नहीं है, तो भी मैं उसका मोह नहीं छोड़ पाता हूँ। ब्रह्मन! मैं राज्यलक्ष्मी से भ्रष्ट, दीन और आर्त होकर इस शोचनीय अवस्था में आ पड़ा हूँ। इस जगत में धन के अतिरिक्त जो सुख हो, उसी का मुझे उपदेश कीजिये। बुद्धिमान कोसलराजकुमार के इस प्रकार पूछने पर महातेजस्वी कालकवृक्षीय मुनि ने इस तरह उत्तर दिया।

मुनि बोले - राजकुमार! तुम समझदार हो; अतः तुम्हें पहले से ही अपनी बुद्धि के द्वारा ऐसा ही निश्चय कर लेना उचित था। इस जगत में मैं और मेरा कहकर जो कुछ भी समझा या ग्रहण किया जाता है, वह सब अनित्य ही है। तुम जिस किसी वस्तु को ऐसा मानते हो कि यह हैं वह सब पहले से ही समझ लो कि नहीं है, ऐसा समझने वाला विद्वान पुरुष कठिन से कठिन विपत्ति में पड़ने पर भी व्यथित नहीं होता। जो वस्तु पहले थी और होगी, वह सब न तो थी और न होगी ही। इस प्रकार जानने योग्य तत्त्व को जान लेने पर तुम सम्पूर्ण अधर्मों से छुटकारा पा जाओगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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