महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-16

एकोनत्रिंश (29) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान देना

भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इन्द्र के ऐसा कहने पर मतंग अपने मन को और भी दृढ़ और संयमशील बनाकर एक हज़ार वर्षों तक एक पैर से ध्यान लगाये खड़ा रहा। जब एक हज़ार वर्ष पूरे होने में कुछ ही बाकी था, उस समय बल और वृत्रासुर के शत्रु देवराज इन्द्र फिर मतंग को देखने लिये आये और पुनः उससे उन्होंने पहले की कही हुई बात ही दुहरायी। मतंग ने कहा- देवराज! मैंने ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो एक हज़ार वर्षों तक एक पैर से खड़ा होकर तप किया है। फिर मुझे ब्राह्मणत्व कैसे नहीं प्राप्त हो सकता?

इन्द्र ने कहा- मतंग! चाण्डाल की योनि में जन्म लेने वाले को किसी तरह ब्राह्मणत्व नहीं मिल सकता; इसलिये तुम दूसरी कोई अभीष्ट वस्तु मांग लो। जिससे तुम्हारा यह परिश्रम व्यर्थ न जाये।

उनके ऐसा कहने पर मतंग अत्यन्त शोकमग्न हो गया में जाकर अंगुठे के बल पर सौ वर्षों तक खड़ा रहा। उसने दुर्धर योग का अनुष्ठान किया। उसका सारा शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया। नस-नाड़ियाँ उघड़ आयीं। धर्मात्मा मतंग का शरीर चमड़े से ढकी हुई हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया। उस अवस्था में अपने को न संभाल सकने के कारण वह गिर पड़ा, यह बात हमारे सुनने में आयी है। उसे गिरते देख सम्पूर्ण भूतों के हित में तत्पर रहने वाले वर देने में समर्थ इन्द्र ने दौड़कर पकड़ लिया। इन्द्र ने कहा- मतंग! इस जन्म में तुम्हारें लिये ब्राह्मणत्व की प्राप्ति असम्भव दिखायी देती है। ब्राह्मणत्व अत्यन्त दुर्लभ है; साथ ही वह काम-क्रोध आदि लुटेरों से घिरा हुआ है। जो ब्राह्मण का आदर करता है, वह सुख पाता है और जो अनादर करता है, वह दुःख पाता है। ब्राह्मण समस्त प्राणियों को योगक्षेम की प्राप्ति कराने वाला है।

मतंग! ब्राह्मणों के तृप्त होने से ही देवता और पितर भी तृप्त होते हैं। ब्राह्मण को समस्त प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है। ब्राह्मण जो-जो जिस प्रकार करना चाहता है, अपने तप के प्रभाव से वैसा ही कर सकता है। तात! जीव इस जगत के भीतर अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ बारंबार जन्म लेता है। इसी तरह जन्म लेते-लेते कभी किसी समय में वह ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है। अतः जिनका मन अपने वश में नहीं है, ऐसे लोगों के लिये सर्वथा दुष्प्राप्य ब्राह्मणत्व को पाने का आग्रह छोड़कर तुम कोई दूसरा ही वर मांगो। यह वर तो तुम्हारे लिये दुर्लभ ही है।

मतंग ने कहा- देवराज! मैं तो यों ही दुःख से आतुर हो रहा हूँ, फिर तुम भी क्यों मुझे पीड़ा दे रहे हो? मुझ मरे हुए को क्यों मारते हो? मैं तो तुम्हारे लिये शोक करता हूँ, जो जन्म से ही ब्राह्मणत्व को पाकर भी तुम उसे अपना नहीं रहे हो। शतक्रतो! यदि क्षत्रिय आदि तीन वर्णें के लिये ब्राह्मणत्व दुर्लभ है तो उस परम दुर्लभ ब्राह्मणत्व को पाकर भी मनुष्य ब्राह्मणोचित शम-दम का अनुष्ठान नहीं करते हैं। यह कितने दुःख की बात है। वह पापियों से भी बढ़कर अत्यन्त पापी और उनमें भी अधम ही है, जो दुर्लभ धन की भाँति ब्राह्मणत्व को पाकर भी उसके महत्त्व को नहीं समझता है। पहले तो ब्राह्मणत्व का प्राप्त होना ही कठिन है, यदि वह प्राप्त हो जाये तो उसका पालन करना और भी कठिन हो जाता है; किंतु बहुत-से मनुष्य इस दुर्लभ वस्तु को पाकर भी तदनुकूल आचरण नहीं करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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