महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 125 श्लोक 1-19

पंचविंशत्यधिकशततम (125) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: पंचविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना

  • वैशम्पायनजी कहते हैं- भरतश्रेष्ठ जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण का पूर्वोक्त वचन सुनकर शांतनुनन्दन भीष्म ने ईर्ष्या और क्रोध में भरे रहने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा- (1)
  • ‘तात! भगवान श्रीकृष्ण ने सुहृदयों में परस्पर शांति बनाए रखने की इच्छा से जो बात कही है, उसे स्वीकार करो। क्रोध के वशीभूत न होना। (2)
  • ‘तात! महात्मा केशव की बात न मानने से तुम कभी श्रेय, सुख और कल्याण नहीं पा सकोगे। (3)
  • वत्स! महाबाहु केशव ने तुमसे धर्म और अर्थ के अनुकूल बात कही है। राजन! तुम उसे स्वीकार कर लो, प्रजा का विनाश न करो। (4)
  • ‘बेटा! यह भरतवंश की राजलक्ष्मी समस्त राजाओं में प्रकाशित हो रही है, किन्तु मैं देखता हूँ की तुम अपनी दुष्टता के कारण इसे धृतराष्ट्र के जीते-जी ही नष्ट कर दोगे। (5)
  • ‘साथ ही अपनी इस अहंकारयुक्त बुद्धि के कारण तुम पुत्र, भाई, बांधवजन तथा मंत्रियों सहित अपने आपको भी जीवन से वंचित कर दोगे। (6)
  • ‘भरतश्रेष्ठ! केशव का वचन सत्य और सार्थक है।तुम उनके, अपने पिता के तथा बुद्धिमान विदुर के वचनों की अवहेलना करके कुमार्ग पर न चलो। कुलघाती, कुपुरुष और कुबुद्धि से कलंकित न बनो तथा माता पिता को शोक के समुद्र में न डुबाओ। (7-8)
  • तदनंतर रोष के वशीभूत होकर बारंबार लंबी सांस खींचने वाले दुर्योधन से द्रोणाचार्य ने इस प्रकार कहा- (9)
  • ‘तात! भगवान श्रीकृष्ण और शांतनुनन्दन भीष्म ने धर्म और अर्थ से युक्त बात कही है।नरेश्वर! तुम उसे स्वीकार करो। (10)
  • ‘राजन! ये दोनों महापुरुष विद्वान, मेधावी, जितेंद्रिय, तुम्हारा भला चाहने वाले और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता हैं। इन्होंने तुमसे हित की ही बात कही है, अत: तुम इसका सेवन करो। (11)
  • ‘महामते! श्रीकृष्ण और भीष्म ने जो कुछ कहा है, उसका पालन करो। परंतप! तुम तुच्छ बुद्धिवाले लोगों की बात पर आस्था मत रखो। शत्रुदमन! अपनी बुद्धि के मोह से माधव का तिरस्कार न करो। (12)
  • ‘जो लोग तुम्हें युद्ध के लिए उत्साहित कर रहे हैं, ये कभी तुम्हारे काम नहीं आ सकते। ये युद्ध का अवसर आने पर वैर का बोझ दूसरे के कंधे पर डाल देंगे। (13)
  • ‘समस्त प्रजाओं, पुत्रों, और भाइयों की हत्या न कराओ। जिनकी ओर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, उन्हें युद्ध में अजेय समझो। (14)
  • ‘तात! भरतनन्दन! तुम्हारा वास्तविक हित चाहने वाले श्रीकृष्ण और भीष्म का यही यथार्थ मत है। यदि तुम इसे ग्रहण नहीं करोगे तो पछताओगे। (15)
  • ‘जमदग्निनन्दन परशुरामजी ने जैसा बताया है, ये अर्जुन उससे भी महान है और देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण तो देवताओं के लिए भी अत्यंत दु:सह हैं। भरतश्रेष्ठ! तुम्हें सुखद और प्रिय लगने वाली अधिक बातें कहने से क्या लाभ? ये सब बातें जो हमें कहनी थीं, मैंने कह दीं। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो। भरतवंश विभूषण! अब तुमसे और कुछ कहने के लिए मेरे मन में उत्साह नहीं है।’ (16-17)
  • वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! जब द्रोणाचार्य अपनी बात कह रहे थे, उसी समय विदुरजी भी अमर्ष में भरे हुए धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन की ओर देखकर बीच में ही कहने लगे-(18)
  • ‘भरतभूषण दुर्योधन! मैं तुम्हारे लिए शोक नहीं करता। मुझे तो तुम्हारे इन बूढ़े माता-पिता गांधारी और धृतराष्ट्र के लिए भारी शोक हो रहा है। (19)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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