महाभारत सभा पर्व अध्याय 50 श्लोक 1-19

पंचाशत्तम (50) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


दुर्योधन का धृतराष्ट्र को अपने दु:ख और चिन्ता का कारण बताना


जनमेजय ने पूछा- मुने! भाइयों में वह महाविनाशकारी द्यूत किस प्रकार आरम्भ हुआ, जिसमें मेरे पितामह पाण्डवों को उस महान संकट का सामना करना पड़ा? ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे! वहाँ कौन-कौन से राजा सभासद थे? किसने द्यूतक्रीड़ा का अनुमोदन किया और किसने निषेध? ब्रह्मन्! मैं इस प्रसंग को आपके मुख से विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। विप्रवर! यह द्यूत ही समस्त भूमण्डल के विनाश का मुख्य कारण है।

सौति कहते हैं- राजा के इस प्रकार पूछने पर व्यास जी के प्रतापी शिष्य वेदतत्त्वज्ञ वैशम्पायन जी वह सब प्रसंग सुनाने लगे।

वैशम्पायन जी ने कहा- भरतवंशशिरोमणे! महाराज जनमेजय! यदि तुम्हारा मन यह सब सुनने में लगता है तो पुन: विस्तार के साथ इस कथा को सुनो। विदुर का विचार जानकर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने एकान्त में दुर्योधन से पुन: इस प्रकार कहा- ‘गान्धारीनन्दन! जूए का खेल नहीं होना चाहिये, विदुर इसे अच्छा नहीं बताते हैं। महाबुद्धिमान विदुर हमें कोई ऐसी सलाह नहीं देंगे, जिससे हम लोगों का अहित होने वाला हो। विदुर जो कहते हैं, उसी को मैं अपना सर्वोत्तम हित मानता हूँ। बेटा! तुम भी वही सब करो। मेरी समझ में तुम्हारे लिये यही हितकर है। उदार बुद्धि वाले इन्द्रगुरु देवर्षि भगवान बृहस्पति ने परम बुद्धिमान देवराज इन्द्र को जिस शास्त्र का उपदेश दिया था, वह सब उसके रहस्य सहित महाज्ञानी विदुर जानते हैं। बेटा! मैं भी सदा विदुर की बात मानता हूँ। कुरुकुुल में सबसे श्रेष्ठ और मेधावी विदुर माने गये हैं तथा वृष्णिवंश में पूजित उद्धव को परम बुद्धिमान बताया गया है।

अत: बेटा! जूआ खेलने से कोई लाभ नहीं है। जूए में वैर विरोध की सम्भावना दिखायी देती है। वैर-विरोध होने से राज्य का नाश हो जाता है, अत: पुत्र! जूए का आग्रह छोड़ दो। पिता माता को चाहिये कि वे पुत्र को उत्तम कर्त्तव्य की शिक्षा दें, इसीलिये मैंने ऐसा कहा है। बेटा! तुम अपने बाप दादों के पद पर प्रतिष्ठित हो, तुमने वेदों का स्वाध्याय किया है, शास्त्रों की विद्वत्ता प्राप्त की है और घर में सदा तुम्हारा लालन पालन हुआ है। महाबाहो! तुम अपने भाइयों में बड़े हो, अत: राजा के पद पर स्थित हो, तुम्हें किस कल्याणमय वस्तु की प्राप्ति नहीं होती है? दूसरे लोगों के लिये जो अलभ्य है, वह उत्तम भोजन और वस्त्र तुम्हें प्राप्त हैं। फिर तुम क्यों शोक करते हो? महाबाहो! तुम्हारे बाप दादों का यह महान राष्ट्र धन-धान्य से सम्पन्न है। स्वर्ग में देवराज इन्द्र की भाँति तुम इस लोक में सदा सब पर शासन करते हुए शोभा पाते हो। तुम्हारी उत्तम बुद्धि प्रसिद्ध है। फिर तुम्हें शोक की कारण भूत यह दु:खदायिनी चिन्ता कैसे प्राप्त हुई है? यह मुझसे बताओ’।

दुर्योधन बोला- मैं अच्छा खाता हूँ और अच्छा पहिनता हूँ, इतना ही देखते हुए जो पापी पुरुष शत्रुओं के प्रति ईर्ष्या नहीं करता, वह अधम बताया गया है। राजेन्द्र! यह साधारण लक्ष्मी मुझे प्रसन्न नहीं कर पाती। मैं तो कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की उस जगमगाती हुई लक्ष्मी को देखकर व्यथित हो रहा हूँ। सारी पृथ्वी युधिष्ठिर के अधीन हो गयी है, फिर भी मैं पाषाणतुल्य हूँ, जो कि ऐसा दु:ख प्राप्त होने पर भी जीवित हूँ और आपसे बातें करता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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