महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 83 श्लोक 1-28

त्र्यशीतितम (83) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व: त्र्यशीतितम अध्याय: श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन की प्रतिज्ञा को सफल बनाने के लिये युधिष्ठिर की श्रीकृष्ण से प्रार्थना और श्रीकृष्ण का उन्हें आश्वासन देना
  • संजय कहते हैं- राजन! तदनन्तर कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर ने अत्यन्त प्रसन्न हो देवकीनन्दन जनार्दन का अभिनन्दन करके पूछा। (1)
  • 'मधुसूदन! क्या आपकी रात सुखपूर्वक बीती है? अच्युत! क्या आपकी सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियाँ प्रसन्न हैं?' (2)
  • तब भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनसे समयोचित प्रश्‍न किये तत्पश्चात सेवक ने आकर सूचना दी कि मन्त्री, सेनापति आदि उपस्थित हैं। (3)
  • उस समय महाराज की अनुमति पाकर विराट, भीमसेन, धृष्टद्युम्न, सात्यकि, चेदिराज, धृष्टकेतु, महारथी द्रुपद, शिखण्डी, नकुल, सहदेव, चेकितान, केकयराजकुमार, कुरुवंशी युयुत्सु,पांचालवीर उत्तमौजा, युधामन्यु, सुबाहु तथा द्रौपदी के पाँचों पुत्र- इन सब लोगों को द्वारपाल भीतर ले आया। (4-6)
  • ये तथा और भी बहुत-से क्षत्रियशिरोमणि महात्मा युधिष्ठिर की सेवा में उपस्थित हुए और सुन्दर आसन पर बैठे। (7)
  • महाबली और महातेजस्वी महात्मा श्रीकृष्ण और सात्यकि ये दोनों वीर एक ही आसन पर बैठे थे। (8)
  • तब युधिष्ठिर ने उन सब लोगों के सुनते हुए कमलनयन भगवान मधुसूदन को सम्बोधित करके मधुर वाणी में कहा। (9)
  • 'प्रभो! जैसे देवता इन्द्र का आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार हम लोग एकमात्र आपका सहारा लेकर युद्ध में विजय और शाश्वत सुख पाना चाहते हैं।' (10)
  • 'श्रीकृष्ण! शत्रुओं ने जो हमारे राज्य का नाश करके हमारा तिरस्कार किया और भाँति-भाँति के क्लेश दिये, उन सबको आप अच्छी तरह जानते हैं।' (11)
  • 'भक्तवत्सल सर्वेश्‍वर! मधुसूदन! हम सब लोगों का सुख और जीवन-निर्वाह पूर्णरूप से आपके ही अधीन है।' (12)
  • 'वार्ष्णेय! हमारा मन आप में ही लगा हुआ है। अतः आप ऐसा करें, जिससे अर्जुन की अभीष्‍ट प्रतिज्ञा सत्य होकर रहे।' (13)
  • 'माधव! आज इस दुख और अमर्श के महासागर से पार होने की इच्छा वाले हम सब लोगों के लिये आप नौका बन जाइये। आप ही इस संकट से हमारा उद्धार कीजिये।' (14)
  • 'श्रीकृष्ण! संग्राम में शत्रु वध के लिये उद्यत हुआ रथी भी वैसा कार्य नहीं कर पाता, जैसा कि प्रयत्न्नशील सारथि कर दिखाता है।' (15)
  • 'महाबाहु जनार्दन! जैसे आप वृष्णिवंशियों को सम्पूर्ण आपत्तियों से बचाते हैं, उसी प्रकार हमारी भी इस संकट से रक्षा कीजिये।' (16)
  • 'शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले परमेश्वर! नौका-रहित अगाध कौरव-सागर में निगग्न पाण्डवों का आप स्वयं ही नौका बनकर उद्धार कीजिये।' (17)
  • 'शत्रुनाशक! सनातन देवदेवेश्वर! विष्णो! जिष्णो! हरे! कृष्‍ण! वैकुण्ठ! पुरुषोत्तम! आपको नमस्कार है।' (18)
  • 'माधव! देव‍र्षि नारद ने बताया है कि आप शांर्ग धनुष धारण करने वाले, सर्वोत्तम वरदायक, पुरातन ऋषिश्रेष्‍ठ नारायण हैं।, उनकी वह बात सत्‍य कर दिखाइये।' (19)
  • उस राजसभा में धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर उत्तम वक्ता कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने सजल मेघ के समान गम्भीर वाणी में उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया। (20)
  • श्रीकृष्ण बोले- राजन देवताओं सहित सम्पूर्ण लोकों में कोई भी वैसा धनुर्धर नहीं है।, जैसे आपके भाई कुन्तीकुमार धनंजय हैं। (21)
  • वे शक्तिशाली, अस्त्रज्ञानसम्पन्न, पराक्रमी, महाबली, युद्धकुशल, सदा अमर्षशील और मनुष्यों में परम तेजस्वी हैं। (22)
  • अर्जुन के कंधे वृष के समान सुपुष्‍ट हैं, भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं, उनकी चाल भी श्रेष्‍ठ सिंह के सदृश है, वे महान बलवान युवक और श्रीसम्पन्न हैं, अतः आपके शत्रुओं को अवश्‍य मार डालेंगे। (23)
  • मैं भी वही करूँगा, जिससे कुन्तीपुत्र अर्जुन दुर्योधन की सारी सेनाओं को उसी प्रकार जला डालेंगे, जैसे आग ईधन को जलाती है। (24)
  • आज सुभद्राकुमार अभिमन्यु की हत्या करने वाले उस नीच पापी जयद्रथ को अर्जुन अपने बाणों द्वारा उस मार्ग पर डाल देंगे, जहाँ जाने पर उस जीव का पुनः इस लोक में दर्शन नहीं होता। (25)
  • आज गीध, बाज, क्रोध भरे हुए गीदड़ तथा अन्य नरभक्षी जीव-जन्तु जयद्रथ का मांस खायेंगे। (26)
  • यदि इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी उसकी रक्षा के लिये आ जायँ तथापि वह आज संग्राम में मारा जाकर यमराज की राजधानी में अवश्य जा पहुँचेगा। (27)
  • राजन आज विजयशील अर्जुन जयद्रथ को मारकर ही आपके पास आयेंगे, आप ऐश्वर्य से सम्पन्न रहकर शोक और चिन्ता को त्याग दीजिये। (28)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञापर्व में श्रीकृष्णवाक्यविषयक तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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