महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 60 श्लोक 1-20

षष्टितम (60) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

Prev.png

महाभारत: अनुशासन पर्व: षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


श्रेष्ठ अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन एवं गुणवान को दान देने का विशेष फल

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! उत्तम आचरण, विद्या और कुल में एक समान प्रतीत होने वाले दो ब्राह्मणों में से यदि एक याचक हो और दूसरा अयाचक तो किसको दान देने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है?

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! याचना करने वाले की अपेक्षा याचना न करने वाले को दिया हुआ दान ही श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी बताया गया है तथा अधीर हृदय वाले कृपण मनुष्य की अपेक्षा धैर्य धारण करने वाला ही विशेष सम्मान का पात्र है। रक्षा के कार्य में धैर्य धारण करने वाला क्षत्रिय और याचना न करने में दृढ़ता रखने वाला ब्राह्मण श्रेष्ठ है। जो ब्राह्मण धीर, विद्वान और संतोषी होता है, वह देवताओं को अपने व्यवहार से संतुष्ट करता है। भारत! दरिद्र की याचना उसके लिये तिरस्कार का कारण मानी गयी है; क्योंकि याचक प्राणी लुटेरों की भाँति सदा लोगों को उद्विग्न करते रहते हैं। याचक मर जाता है, किंतु दाता कभी नहीं मरता। युधिष्ठिर! दाता इस याचक को और अपने को भी जीवित रखता है। याचक को जो दान दिया जाता है, वह दयारूप परम धर्म है, परंतु जो लोग क्लेश उठाकर भी याचना नहीं करते, उन ब्राह्मणों को प्रत्येक उपाय से अपने पास बुलाकर दान देना चाहिये। यदि तुम्हारे राज्य के भीतर वैसे श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते हों तो वे राख में छिपी हुई अग्नि के समान हैं। तुम्हें प्रयत्नपूर्वक ऐसे ब्राह्मणों का पता लगाना चाहिये।

कुरुनन्दन! तपस्या से देदीप्यमान होने वाले वे ब्राह्मण पूजित न होने पर यदि चाहें तो सारी पृथ्वी को भी भस्म कर सकते हैं; वैसे ब्राह्मण सदा ही पूजा करने के योग्य हैं। परंतप! जो ब्राह्मण ज्ञान-विज्ञान, तपस्या और योग से युक्त हैं, वे पूजनीय होते हैं। उन ब्राह्मणों की तुम्हें सदा पूजा करनी चाहिये। जो याचना नहीं करते, उनके पास तुम्हें स्‍वयं जाकर नाना प्रकार के पदार्थ देने चाहिये। सांय और प्रातःकाल विधिपूर्वक अग्निहोत्र से जो फल मिलता है, वही वेद के विद्वान और व्रतधारी ब्राह्मण को दान देने से भी मिलता है। कुरुनन्दन! जो विद्वान और वेदव्रत में निष्णात हैं, जो किसी के आश्रित होकर जीविका नहीं चलाते, जिनका स्वाध्याय और तपस्या गुप्त है तथा जो कठोर व्रत का पालन करने वाले हैं, ऐसे उत्तम ब्राह्मणों को तुम अपने यहाँ निमंत्रित करो और उन्हें सेवक, आवश्‍यक सामग्री तथा अन्यान्य उपभोग की वस्तुओं से सम्पन्न मनोरम गृह बनवाकर दो।

युधिष्ठिर! वे धर्मज्ञ तथा सूक्ष्मदर्शी ब्राह्मण तुम्हारे श्रद्धायुक्त दान को कर्तव्य बुद्धि से किया हुआ मानकर अवश्‍य स्वीकार करेंगे। जैसे किसान बर्षा की बाट जोहते रहते हैं, उसी प्रकार जिनके घर की स्त्रियाँ अन्न की प्रतीक्षा में बैठी हों और बालकों को यह कहकर बहला रही हों कि 'अब तुम्हारे बाबू जी भोजन लेकर आते ही होंगे' क्या ऐसे ब्राह्मण तुम्हारे यहाँ भोजन करके अपने घरों को गये हैं। तात! नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण यदि प्रातःकाल घर में भोजन करते हैं तो तीनों अग्नियों को तृप्त कर देते हैं।

बेटा! दोपहर के समय जो तुम ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें, गौ, सुवर्ण और वस्त्र प्रदान करते हो, इससे तुम्हारे ऊपर इन्द्र देव प्रसन्न हों। युधिष्ठिर! तीसरे समय में जो तुम देवताओं, पितरों और ब्राह्मणों के उद्देश्‍य से दान करते हो, वह विश्‍वेदेवों को संतुष्ट करने वाला होता है। सब प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव रखना, सब को यथायोग्य भाग अर्पण करना, इन्द्रियसंयम, त्याग, धैर्य और सत्य- ये सब गुण तुम्हें यज्ञान्त में किये जाने वाले अवभृथ-स्नान का फल देंगे। इस प्रकार जो तुम्हारे श्रद्धा से पवित्र एवं दक्षिणा-युक्त यज्ञ का विस्तार हो रहा है; यह सभी यज्ञों से बढ़कर है। तात युधिष्ठिर! तुम्हारा यह यज्ञ सदा चालू रहना चाहिये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्‍तर्गत दानधर्म पर्व में साठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः