महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 38 श्लोक 1-3

अष्टात्रिंश (38) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद

ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत् की उत्पत्ति का, सत्त्व, रज, तम-तीनों गुणों का, भगवत्प्राप्ति के उपाय एवं गुणातीत पुरुष के लक्षणों का वर्णन

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 14


सम्बन्ध- गीता के तेरहवें अध्याय में ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ के लक्षणों का निर्देश करके कृष्ण ने अर्जुन को इन दोनों के ज्ञान को ही ज्ञान बतलाया और इसके अनुसार क्षेत्र के स्वरूप, स्वभाव, विकार और इसके तत्त्वों कि उत्पत्ति के क्रम आदि तथा क्षेत्रज्ञ के स्वरूप और उसके प्रभाव का वर्णन किया। पूर्व के श्लोक उन्नीसवें में कृष्ण ने प्रकृति-पुरुष के नाम से प्रकरण आरम्भ करके गुणों को प्रकृतिजन्य बतलाया और इक्कीसवें श्लोक में कृष्ण द्वारा यह बात भी कही कि पुरुष बार बार अच्छी बुरी योनियों में जन्म होने का कारण उसके गुणों का संग होना ही है। अब इससे गुणों के भिन्न-भिन्न स्वरूप क्या हैं, ये जीवात्मा को कैसे शरीर में बांधते हैं, किस गुण के संग से किस योनि में जन्म होता है, गुणों से छूटने के उपाय क्या हैं, गुणों से छूटे यह पुरुषों के लक्षण तथा आचरण कैसे होते हैं- ये सब बातें बताने के लिये इस चौदहवें अध्याय को आरम्भ किया गया है। कृष्ण तेरहवें अध्याय में वर्णित ज्ञान को ही स्पष्ट करके चौदहवें अध्याय में विस्तारपूर्वक अर्जुन को समझाते हैं।

श्री भगवान अर्जुन से बोले- हे अर्जुन! ज्ञानों में भी अति उत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर से कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं।[1] इस ज्ञान को आश्रय करके[2] अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते।[3] हे अर्जुन! मेरी महत-ब्रह्मरूप मूल प्रकृति सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है[4] और मैं उस योनि में चेतन-समुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूँ।[5] उस जड-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है।[6]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ ‘मुनिजन’ शब्द से ज्ञानयोग के साधन द्वारा परम गति को प्राप्त ज्ञानियों को समझना चाहिये तथा जिसको ‘परब्रह्म की प्राप्ति’ कहते हैं, जिसका वर्णन ‘परम शांति’, ‘आत्यन्तिक सुख’ और ‘अपुनरावृति’ आदि अनेक नामों से किया गया है, जहाँ जाकर फिर कोई वापस नहीं लौटता- यहाँ मुनिजनों द्वारा प्राप्त की जाने वाली ‘परम सिद्धि’ भी वही है।
  2. इस प्रकार में वर्णित ज्ञान के अनुसार प्रकृति और पुरुष के स्वरूप को समझकर गुणों के सहित प्रकृति से सर्वथा अतीत हो जाना और निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दन परमात्मा के स्वरूप में अभिन्नभाव से स्थित रहना ही इस ज्ञान का आश्रय लेना है।
  3. इससे भगवान ने यह दिखलाया है कि इन अध्यायों में बतलाये हुए ज्ञान का आश्रय लेकर तदनुसार साधन करके जो पुरुष परब्रह्म परमात्मा के स्वरूप को अभेद भाव से प्राप्त हो चुके हैं, वे मुक्त पुरुष न तो महासर्ग के आदि में पुनः उत्पन्न होते हैं और न प्रलयकाल में पीड़ित ही होते हैं। वस्तुतः सृष्ट सर्ग और प्रलय से उनका कोई सम्‍बन्‍ध नहीं रह जाता।
  4. समस्त जगत की कारणरूपा जो मूल प्रकृति है, जिसे ‘अव्यक्त’ और ‘प्रधान’ भी कहते हैं; उस प्रकृति का वाचक ‘महत’ विशेषण के सहित ‘ब्रह्मा’ शब्द है। यहाँ उसे ‘योनि’ नाम देकर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि समस्त प्राणियों के विभिन्न शरीरों का यही उपादान-कारण है और यही गर्भाधान का आधार है।
  5. महाप्रलय के समय अपने अपने संस्कारों के सहित परमेश्वर में स्थित जीवसमुदाय का जो महासर्ग के आदि में प्रकृति के साथ विशेष सम्बन्ध कर देना है, वही उस चेतनसमुदायरूप गर्भ को प्रकृति रूप योनि में स्थापना करता है।
  6. उपयुक्त जड़ चेतन के संयोग से जो भिन्न-भिन्न आकृतियों में सब प्राणियों का सूक्ष्मरूप से प्रकट होना है, वही उनकी उत्पत्ति है।

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