चतुष्पंचाशदधिकद्विशततम (254) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुष्पंचाशदधिकद्विशततम श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद
कामरूपी अद्भुत वृक्ष का तथा उसे काटकर मुक्ति प्राप्त करने के उपाय का और शरीररूपी नगर का वर्णन
कोई विद्वान् पुरुष ही ज्ञानयोग के प्रसाद से समतारूप उत्तम खड्ग के द्वारा बलपूर्वक उस वृक्ष का मूलोच्छेद कर डालता है। इस प्रकार जो केवल कामनाओं को निवृत्त करने का उपाय जानता है तथा भोग विधायक शास्त्र बन्धनकारक है-इस बात को समझता है, वह सम्पूर्ण दु:खों को लाँघ जाता है। इस शरीर को पुर या नगर कहते है। बुद्धि इस नगर की रानी मानी गयी है और शरीर के भीतर रहने वाला मन निश्चयात्मि का बुद्धिरूप रानी के अर्थ की सिद्धि का विचार करने वाला मन्त्री हैं। इन्द्रियाँ इस नगर मे निवास करने वाली प्रजा हैं। वे मनरूपी मन्त्री की आज्ञा के अधीन रहती हैं। उन प्रजाओं की रक्षा के लिये मन को बड़े-बड़े़ कार्य करने पड़ते हैं। वहाँ दो दारुण दोष हैं, जो रज और तम के नाम से प्रसिद्ध हैं। नगर के शासक मन, बुद्धि और जीव इन तीनों के साथ समस्त पुरवासी रूप इन्द्रियगण मन द्वारा प्रस्तुत किये हुए शब्द आदि विषयों का उपभोग करते हैं। रजोगुण और तमोगुण-ये दो दोष निषिद्धमार्ग के द्वारा उस विषय-सुख का आश्रय लेते हैं। वहाँ बुद्धि दुर्धर्ष होने पर भी मन के साथ रहने से उसी के समान हो जाती है। उस समय इन्द्रियरूपी पुरवासीजन मन के भय से त्रस्त हो जाते हैं, अत: उनकी स्थिति भी चंचल ही रहती है। बुद्धि भी उस अनर्थ काही निश्चय करती है। इसलिये वह अनर्थ आ बसता है। बुद्धि जिस विषस का अवलम्बन करती है, मन भी उसी का आश्रय लेता है। मन जब बुद्धि से पृथक् होता है, तब केवल मन रह जाता है। उस समय रजोगुणजनित काम मन को आत्मा के बल से युक्त होनेपर भी विवेक से रहित होने के कारण सब ओर से घेर लेता है। तब वह काम से घिरा हुआ मन उस रजोगुणरूप काम के साथ मित्रता स्थापित कर लेता है। उसके बाद वह मन ही उस इन्द्रियरूप पुरवासीजन को रजोगुणजनित काम के हाथ में समर्पित कर देता है (जैसे राजा का विरोधी मन्त्री राज्य और प्रजा को शत्रु के हाथ में सौंप देता है)। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव का अनुप्रश्न विषयक दो सौ चौवनवॉ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज