महाभारत वन पर्व अध्याय 56 श्लोक 1-19

षट्पंचाशत्तम (56) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षट्पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


नल का दमयन्ती से वार्तालाप करना और लौटकर देवताओं को उसका संदेश सुनाना

बृहदश्व मुनि कहते है- राजन्! दमयन्ती ने अपनी श्रद्धा के अनुसार देवताओं को नमस्कार करके नल से हंसकर कहा- ‘महाराज! आप ही मेरा पाणिग्रहण कीजिये और बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ। नरेश्वर! मैं तथा मेरा जो कुछ दूसरा धन है, वह सब आपका है। आप पूर्ण विश्वस्त होकर मेरे साथ विवाह कीजिये।। भुपाल! हंसों की जो बात मैंने सुनी, वह (मेरे हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित करके सदा) मुझे दग्ध करती रहती है। वीर! आप ही को पाने के लिये मैंने यहाँ समस्त राजाओं का सम्मेलन कराया है। मानद! आपके चरणों में भक्ति रखने वाली मुझ दासी को यदि आप स्वीकार नहीं करंगे तो मैं आपके ही कारण विष, अग्नि, जल अथवा फांसी को निमित्त बनाकर अपना प्राण त्याग दूंगी।'

दमयन्ती के ऐसा कहने पर राजा नल ने उनसे पूछा- '(तुम्‍हें पाने के लिये उत्सुक) लोकपालों के होते हुए तुम एक साधारण मनुष्य को कैसे पति बनाना चाहती हो? जिन लोकसृष्टा महामना ईश्वरों के चरणों की धूल समान भी मैं नहीं हूं, उन्हीं की ओर तुम्हें मन लगाना चाहिये। निर्दोष अंगों वाली सुन्दरी! देवताओं के विरुद्ध चेष्टा करने वाला मानव मृत्यु को प्राप्त हो सकता है; अतः तुम मुझे बचाओ और उन श्रेष्ठ देवताओं को ही वरण करो तथा देवताओं को ही पाकर निर्मल वस्त्र, दिव्य एवं विचित्र पुष्पहार तथा मुख्य-मुख्य आभूषणों का सुख भोगो। जो इस सारी पृथ्वी को संक्षिप्त करके पुनः अपना ग्रास बना लेते हैं; उन देवेश्वर अग्नि को कौन नारी अपना पति न चुनेगी? जिनके दण्ड के भय से संसार में आये हुए समस्त प्राणि समुदाय धर्म का ही पालन करते हैं, उस यमराज को कौन अपना पति नहीं वरेगी? दैत्यों और दानवों का मर्दन करने वाले धर्मात्मा महामना सर्वदेवेश्वर महेन्द्र का कौन नारी पतिरूप में वरण न करेगी? यदि तुम ठीक समझती हो तो लोकपालों में प्रसिद्ध वरुण को निःशंक होकर अपना पति बनाओ। यह एक हितैषी सुहृद का वचन है, इसे सुनो’।

तदनन्तर विषधराज नल के ऐसा कहने पर दमयन्ती शोकाश्रुओं से भरे हुए नेत्रों द्वारा देखती हुई इस प्रकार बोली- ‘पृथ्वीपते! मैं सम्पूर्ण देवताओं को नमस्कार करके आप ही को अपना पति चुनती हूँ। यह मैने आप से सच्ची बात कहीं है।' ऐसा कहकर दमयन्ती दोनों हाथ जोड़कर थर-थर कांपने लगी। उस अवस्था में राजा नल ने उससे कहा- ‘कल्याणि! मैं इस समय दूत का कार्य करने के लिये आया हूँ, अतः भद्रे! इस समय वही करो जो मेरे स्वरूप के अनुरूप हो। मैं देवताओं के समान प्रतिज्ञा करके विशेषत: परोपकार के लिये प्रयत्न आरम्भ करके अब यहाँ स्वार्थ-साधन के लिये कैसे उत्साहित हो सकता हूँ। यदि यह धर्म सुरक्षित रहे तो उससे मेरे स्वार्थ की भी सिद्धि हो सकती है। भद्रे! तुम ऐसा प्रयत्न करो, जिससे मैं इस प्रकार धर्मयुक्त स्वार्थ की सिद्धि कंरू’।

यह सुनकर पवित्र मुसकान वाली दमयन्ती राजा नल से धीरे-धीरे मधुर वाणी से बोली- ‘नरेश्वर! मैंने उस निर्दोष उपाय को ढूंढ़ निकाला है, राजन्! जिससे आपको किसी प्रकार दोष नहीं लगेगा।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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