महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 122 श्लोक 1-17

द्वाविशत्‍यधिकशततम (122) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: द्वाविशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


द्रोणाचार्य का दु:शासन को फटकारना और द्रोणाचार्य के द्वारा वीरकेतु आदि पाञ्चालों का वध एवं उनका धृष्‍टद्युम्‍न के साथ घोर युद्ध, द्रोणाचार्य का मूर्च्छित होना, धृष्‍टद्युम्‍न का पलायन, आचार्य की विजय


संजय कहते हैं- राजन! समरांगण में युयुधान की मार खाते हुए दु:शासन और कौरव सैनिक उनके रथ को छोड़कर द्रोणाचार्य के रथ की ओर भाग गये। दु:शासन के रथ को अपने समीप खड़ा हुआ देख द्रोणाचार्य उससे इस प्रकार बोले। ‘दु:शासन। ये सारे रथी कहाँ से भागे आ रहे हैं राजा दुर्योधन सकुशल तो है न क्‍या सिधुराज जयद्रथ अभी जीवित है। ‘तुम तो राजा के बेटे, राजा के भाई और महारथी वीर हो। युवराज का पद प्राप्‍त करके तुम इस युद्धस्‍थल में किस लिये भागे फिरते हो। ‘दु:शासन! तुमने द्रौपदी से कहा था’ अरी! तू जूए में जीती हुई दासी है। अत: हमारी इच्‍छा के अनुसार आचरण करने वाली हो जा। मेरे बड़े भाई राजा दुर्योधन की वस्‍त्र वाहिका बन जा। ‘अब तेरे सम्‍पूर्ण पति थोथे तिलों के समान नहीं के बराबर हो गये हैं। पहले ऐसी बातें कहकर अब तुम युद्ध से भाग क्‍यों रहे हो। ‘पाञ्चालों और पाण्‍डवों के साथ स्‍वयं ही बड़ा भारी वैर ठानकर युद्धस्‍थल में अकेले सात्‍यकि का सामना करके कैसे भयभीत हो उठे हो। ‘क्‍या पहले तुम जूए में पासे उठाते समय नहीं जानते थे कि ये एक दिन भयंकर विषधर सर्पों के समान विनाशकारी बाण बन जायंगे। ‘पूर्वकाल में विशेषत: पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर को जो अप्रिय वचन सुनाये गये और द्रौपदी देवी को जो कष्‍ट पहुँचाया गया, इन सबकी जड़ तुम्‍हीं रहे हो।

‘कहां गया तुम्‍हारा वह दर्प और अभिमान कहाँ है तुम्‍हारा पराक्रम और कहाँ गयी तुम्‍हारी गर्जना विषैले सर्पों के समान कुन्‍तीकुमारों को कुपित कहाँ भागे जा रहे हो। ‘यह कौरव सेना, यह राज्य और इसका राजा दुर्योधन - ये सभी शोचनीय हो गये हैं; क्योंकि तुम राजा के क्रूरकर्मी भाई होकर आज युद्ध में पीठ दिखाकर भाग रहे हो। ‘वीर! तुम्हें जो अपने बाहुबल का आश्रय लेकर इस भागती हुई भयभीत सेना की रक्षा करनी चाहिये। ‘परंतु तुम आज युद्ध छोड़कर भयभीत हो उठे और शत्रुओं का हर्ष बढ़ा रहे हो। शत्रुसूदन! तुम जो सेनापति हो। तुम्हारे भागने पर दूसरा कौन युद्धभूमि में ठहर सकेगा? अब आश्रयदाता या रक्षक ही डर जाय, तब दूसरा क्यों न भयभीत होगा।

‘कौरव! अकेले सात्यकि के साथ युद्ध करते समय; जब आज तुम्हारी बुद्धि संग्राम से पलायन करने में प्रवृत्त हो गयी, तुमने भागने का विचार कर लिया, तब जिस समय तुम गाण्डीवधारी अर्जुन, भीमसेन अथवा नकुल-सहदेव को युद्धस्थल में देखोगे, उस समय तुम क्या करोगे ? ‘रणक्षेत्र मे अर्जुन के बाण सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी हैं। उनके समान सात्यकि के बाण नहीं हैं, जिनसे भयभीत होकर तुम भागे जा रहे हो। ‘वीर! जल्दी जाओ। अपनी माता गान्धारी देवी के पेट में घुस जाओ; अन्यथा इस भूतल पर दूसरा कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ भाग जाने से मुझे तुम्हारे जीवन की रक्षा दिखायी देती हो। ‘यदि तुमने भागने का ही विचार की लिया है, तब यह पृथ्वी का राज्य शान्तिपूर्वक ही धर्मराज युधिष्ठिर को सौंप दो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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