पंचाधिकशततम (105) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोण पर्व: पंचाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
अर्जुन तथा कौरव-महारथियों के ध्वजों का वर्णन और नौ महारथियों के साथ अकेले अर्जुन का युद्ध धृतराष्ट्र बोले-संजय! मेरे तथा कुन्ती के पुत्रों के जो नाना प्रकार के ध्वज अत्यन्त शोभा से उद्भासित हो रहे थे, उनका मुझसे वर्णन करो। संजय ने कहा- राजन! उन महामनस्वी वीरों के जो नाना प्रकार की आकृति वाले ध्वज फहरा रहे थे, उनका रुप रंग और नाम मैं बता रहा हूं, सुनिये। राजेन्द्र! उन श्रेष्ठ महारथियों के रथों पर भाँति-भाँति के ध्वज प्रज्वलित अग्न्िा के समान तेजस्वी दिखायी देते थे। वे ध्वज सोने के बने थे। उनके ऊपरी भाग को सुवर्ण से ही सजाया गया था। सोने की ही मालाओं से वे अलंकृत थे। अत: सुवर्णमय महापर्वत सुमेरु के स्वर्णमय शिखरों के समान सुशोभित होते। वे परम शोभा सम्पन्न अनेक प्रकार के बहुरंगे ध्वज सब ओर से नाना रंग की पताकाओं द्वारा घिरकर बड़ी शोभा पाते। उनकी वे पताकाएं वायु से संचालित हो रंगमंच पर नृत्य करने वाली विलासिनियो के समान दिखायी देती थी। भरत श्रेष्ठ! इन्द्र धनुष के समान प्रभावाली फहराती हुई पताकाएं रथियों के विशाल रथों की शोभा बढ़ाती थीं। उस संग्राम में अर्जुन का भंयकर ध्वज वानर के चिह्न से सुशोभित दिखायी देता था। उस वानर की पूंछ सिंह के समान थी और उसका मुख बड़ा ही उग्र था। राजन! श्रेष्ठ वानर से सुशोभित तथा पताकाओं से अलंकृत गाण्डीवधारी अर्जुन का वह ध्वज आपकी उस सेना को भयभीत किये देता था। भारत! इसी प्रकार हम लोगों ने द्रोण पुत्र अश्वत्थामा के श्रेष्ठ ध्वज को प्रात:कालीन सूर्य के समान अरुण कान्ति से प्रकाशित देखा था। उसमें सिंह की पूंछ का चिह्न था। अश्वत्थामा का इन्द्रध्वज के समान प्रकाशमान सुवर्णमय ऊँचा ध्वज वायु की प्रेरणा से फहराता हुआ कौरव नरेशों का आनन्द बढ़ा रहा था। अधिरथ पुत्र कर्ण का ध्वज हाथी की सुवर्णमयी रस्सी के चिह्न युक्त था। महाराज! वह संग्राम में आकाश को भरता हुआ-सा दिखायी देता था। युद्धस्थल में कर्ण के ध्वज पर सुवर्णमयी माला से विभूषित पताका वायु से आन्दोलित हो रथ की बैठक पर नृत्य-सा कर रही थी। पाण्डवों के आचार्य, तपस्वी ब्राह्मण, गौतम गोत्रीय कृपाचार्य के ध्वज पर एक बैल का सुन्दर चिह्न अंकित था, राजन! उनका वह विशाल रथ उस वृषभ चिह्न से बड़ी शोभा पा रहा था; ठीक उसी तरह, जैसे त्रिपुर नाशक महादेवजी का रथ सुन्दर वृषभ चिह्न से शोभायमान होता था। वृषसेन का मणिरत्न विभूषित सुवर्णमय ध्वज मयूर चिह्न से युक्त था। वह मयूर सेना के अग्रभाग की शोभा बढ़ाता हुआ इस प्रकार खड़ा था, मानो बोल देगा। राजेन्द्र! जैसे स्वामी स्कन्द का रथ सुन्दर मयूर चिह्न से शोभित होता है, उसी प्रकार महामना वृषसेन का रथ उस मयूर चिह्न से शोभा पा रहा था। मद्रराज शल्य की ध्वजा के अग्रभाग में हम ने अग्रि शिखा के समान उज्जवल, सुवर्णमय, अनुपम तथा शुभ लक्षणों से युक्त एक 'सीता' (हल से खींची हुई रेखा) देखी थी। माननीय नरेश! जैसे खेत में हल की नोक से बनी हुई रेखा सभी बीजों के अंकुरित होने पर शोभा सम्पन्न दिखायी देती है, उसी प्रकार मद्रराज के रथ का आश्रय ले वह सीता (हल द्वारा बनी हुई रेखा) बड़ी शोभा पा रही थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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