महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 196 श्लोक 1-16

षण्‍णवत्‍यधिकशततम (196) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षण्‍णवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्‍न, उसके उत्तर में जप और ध्‍यान की महिमा और उसका फल

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! आपने चार आश्रमों त‍था राजधर्मों का वर्णन किया एवं अनेकानेक विषयों से संबंध रखने वाले बहुत–से भिन्‍न-भिन्‍न इतिहास भी सुनाये। महामते! मैंने आपके मुख से अनेक धर्मयुक्‍त कथाएं सुनी है; फिर भी मेरे मन में एक संदेह रह गया है, उसे आप मुझे बताने की कृपा करें। भरतनंदन! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि जप करने वाले को फल की प्राप्ति कैसे होती है ? जापकों के जप का फल क्‍या बताया गया है अथवा जप करने वाले पुरुष किन लोकों में स्‍थान पाते हैं? अनघ! आप मुझे जप की सम्‍पूर्ण विधि भी बताइये। ‘जापक’ इस पद से क्‍या तात्‍पर्य है? क्‍या यह सांख्‍ययोग, ध्‍यानयोग अथवा क्रियायोग का अनुष्‍ठान है ? अथवा यह जप भी कोई यज्ञ की ही विधि है? जिसका तप किया जाता है, वह क्‍या वस्‍तु है? आप यह सारी बातें मुझे बताइये; क्‍योंकि आप मेरी मान्‍यता के अनुसार सर्वज्ञा हैं।

भीष्‍मजी ने कहा- राजन्! इस विषय में विद्वान् पुरुष उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जो पूर्वकाल में यम, काल और ब्राह्मण के बीच में घटित हुआ था। मोक्षदर्शी मुनियों ने जो सांख्‍य और योग का वर्णन किया है, उनमें से वेदांत (सांख्‍य)- में तो जप का संन्‍यास (त्‍याग) ही बताया गया है। उपनिषदों के वाक्‍य निर्वृति (परमानंद), शांति तथा ब्रह्मनिष्‍ठता का बोध कराने वाले हैं (अत: वहाँ जप की अपेक्षा नहीं है)। समदर्शी मुनियों ने जो सांख्‍य और योग बताये हैं, वे दोनों मार्ग चित्तशुद्धि के द्वारा ज्ञानप्राप्ति में उपकारक होने से जप का आश्रय लेते हैं, नहीं भी लेते है। राजन्! यहाँ जैसा कारण सुना जाता है, वैसा आगे बताया जायगा।

सांख्‍य और योग– इन दोनों मार्गों में भी मनोनिग्रह और इन्द्रियसंयम आवश्‍यक माने गये हैं। सत्‍य, अग्निहोत्र, एकांतसेवन, ध्‍यान, तपस्‍या, दम, क्षमा, अनसूया, मिताहार, विषयों का संकोच, मितभाषण तथा शम- यह प्रवर्तक यज्ञ है। अब निवर्तक यज्ञ का वर्णन सुनो; जिसके अनुसार जप करने वाले ब्रह्मचारी साधक के सारे कर्म निवृत्त हो जाते हैं ( अर्थात् उसे मोक्ष प्राप्‍त हो जाता है )। इन मनोनिग्रह आदि पूर्वोक्‍त सभी साधनों का निष्‍कामभाव से अनुष्‍ठान करके उन्‍हें प्रवृत्ति के विपरित निवृत्ति मार्ग में बदल डाले। निवृति मार्ग तीन तरह का है- व्यक्त, अव्‍यक्‍त और अनाश्रय, उस मार्ग का आश्रय लेकर स्‍थिरचित्त हो जाय।

निवृत्तिमार्ग पर पहुँचने की विधि यह है- जपकर्ता को कुशासनपर बैठना चाहिये। उसे अपने हाथ में भी कुश रखना चाहिये। शिखा में भी कुश बांध लेना चाहिये, वह कुशों से घिरकर बैठे और मध्‍यभाग में भी कुशों से आच्‍छादित रहे। विषयों को दूर से ही नमस्‍कार करे और कभी उनका अपने मन में चिंतन न करे। मन से समता की भावना करके मन का मन में ही लय करे। फिर बुद्धि के द्वारा परब्रह्म परमात्‍मा का ध्‍यान करे तथा सर्व–हितकारिणी वेदसंहिता का एवं प्रणव और गायत्री मन्‍त्र का जप करे। फिर समाधि में स्थित होने पर उस संहिता एवं गायत्री मन्‍त्र आदि के जप को भी त्‍याग दे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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