महाभारत सभा पर्व अध्याय 63 श्लोक 1-10

त्रिषष्टितम (63) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


विदुर जी के द्वारा जूए का घोर विरोध

विदुर जी बोल- महाराज! जूआ खेलना झगडे़ की जड़ है। इससे आपस में फूट पैदा होती है, जो बड़े भयंकर संकट की सृष्टि करती है। यह धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन उसी का आश्रय लेकर इस समय भयानक वैर की सृष्टि कर रहा है। दुर्योधन के अपराध से प्रतीप, शान्तनु, भीमसेन तथा बाह्लीक के वंशज सब प्रकार से घोर संकट में पड़ जायँगे। जैसे मतवाला बैल मदोन्‍मत्त होकर स्‍वयं ही अपने सींगों को तोड़ लेता है, उसी प्रकार यह दुर्योधन मदान्‍धता के कारण स्‍वयं अपने राज्‍य से मंडल का बहिष्‍कार कर रहा है। राजन्! जो वीर और विद्वान् मनुष्‍य अपनी दृष्टि की अवहेलना करके दूसरे के चित्त के अनुसार चलता है, वह समुद्र में मूर्ख नाविक द्वारा चलायी जाती हुई बैठे हुए मनुष्‍य के समान भयंकर विपत्ति में पड़ जाता है। दुर्योधन पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर के साथ दाँव लगाकर जूआ खेल रहा है, साथ ही वह जीत भी रहा है; यह सोचकर तुम बहुत प्रसन्‍न हो रहे हो; किंतु आज का यह अतिशय विनोद शीघ्र ही भयंकर युद्ध के रूप में परिणत होने वाला है, जिससे (अगणित) मनुष्‍यों का संहार होगा।

जूआ अध:पतन करने वाला है; परंतु शकुनि ने उत्तम मानकर यहाँ उपस्थित किया है। यह जूए का निश्‍चय आप लोगों के हृदय में गुप्‍त मन्‍त्रणा के पश्‍चात् स्थिर हुआ है। परंतु यह जूए- का खेल आपके अपने ही बन्‍धु युधिष्ठिर के साथ आप के विचार और इच्‍छा के विरुद्ध कलह के रूप में परिणत हो जाएगा। प्रतीप और शान्तनु के वंशजो! कौरवों की सभा में मेरी कही हुई बात ध्‍यान से सुनो! यह विद्वानों को भी मान्‍य है। तुम लोग इस मूर्ख दुर्योधन के पीछे चलकर वैर की धधकती हुई भयानक आग में न कूदो। जूए के मद में भूले हुए अजातशत्रु युधिष्ठिर जब अपना क्रोध न रोक सकेंगे तथा भीमसेन, अर्जुन एवं नकुल-सहदेव भी जब क्रुद्ध हो उठेंगे, उस समय घमासान युद्ध छिड़ जाने पर विपित्त के महासागर में डूबते हुए तुम लोगों का कौन आश्रयदाता होगा?

महाराज! आप जूए से पहले भी मन से जितना धन चाहते, उतना धन पा सकते थे; यदि अत्‍यन्‍त धनवान् पाण्‍डवों को आपने जूए के द्वारा जीत ही लिया तो इससे आपका क्‍या होगा? कुन्‍ती के पुत्र स्‍वयं ही धनस्‍वरूप हैं। आप इन्‍हीं को अपनाइये। मैं सुबलपुत्र शकुनि का जूआ खेलना कैसा है, यह जानता हूँ। यह पर्वतीय नरेश जूए की सारी कपटविद्या को जानता है। मेरी इच्‍छा है कि यह शकुनि जहाँ से आया है, वहाँ लौट जाय। भारत! इस तरह कौरवों तथा पाण्‍डवों में युद्ध की आग न भड़काओ।


इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में विदुरवाक्य-विषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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