महाभारत वन पर्व अध्याय 38 श्लोक 1-21

अष्टत्रिंश (38) अध्‍याय: वन पर्व (कैरात पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: अष्टत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन की उग्र तपस्या और उसके विषय में ऋषियों का भगवान् शंकर के साथ वार्तालाप

जनमेजय बोले- 'भगवन्! अनायास ही महान् कर्म करने वाले कुन्तीनन्दन अर्जुन की यह कथा मैं विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूं; उन्होंने किस प्रकार अस्त्र प्राप्त किये? पुरुषसिंह महाबाहु तेजस्वी धनंजय उस निर्जन वन में निर्भय के समान कैसे चले गये थे? ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे! उस वन में रहकर पार्थ ने क्या किया? भगवान् शंकर तथा देवराज इन्द्र को कैसे संतुष्ट किया? विप्रवर! मैं आपकी कृपा से यह सब बाते सुनना चाहता हूँ। सर्वज्ञ! आप दिव्य और मानुष सभी वृत्तान्तों को जानते हैं। ब्रह्मन्! मैंने सुना है, कभी संग्राम में परास्त न होने वाले, योद्धाओं में श्रेष्ठ अर्जुन ने पूर्वकाल में भगवान् शंकर के साथ अत्यन्त अद्भुत, अनुपम और रोमांचकारी युद्ध किया था, जिसे सुनकर मनुष्यों में श्रेष्ठ शूरवीर कुन्तीपुत्रों के हृदयों में भी दैन्य, हर्ष और विस्मय के कारण कंपकंपी छा गयी थी। अर्जुन ने और भी जो-जो कार्य किये हों, वे सब भी मुझे बताईये। शूरवीर अर्जुन का अत्यन्त सूक्ष्म चरित्र भी ऐसा नहीं दिखायी देता है, जिसमें थोड़ी-सी भी निंदा के लिये स्थान हो; अतः वह सब मुझसे कहिये।'

वैशम्पायन जी ने कहा- तात! पौरवश्रेष्ठ! महात्मा अर्जुन की यह कथा दिव्य, अद्भुत और महत्त्वपूर्ण है; इसे मैं तुम्हें सुनाता हूँ। अनघ! देवदेव महादेव जी के साथ अर्जुन के शरीर का जो स्पर्श हुआ था, उससे सम्बन्ध रखने वाली यह कथा है। तुम उन दोनों के मिलन का वह वृत्तान्त भली-भाँति सुनो। राजन् अमित पराक्रमी, महाबली, महाबाहु, कुरुकुलभूषण, इन्द्रपुत्र अर्जुन, जो सम्पूर्ण विश्व में विख्यात महारथी और सुस्थिर चित्त वाले थे, युधिष्ठिर की आज्ञा से देवराज इन्द्र तथा देवाधिदेव भगवान् शंकर का दर्शन करने के लिये कार्य की सिद्धि का उपदेश लेकर अपने उस दिव्य (गाण्डीव) धनुष और सोने की मूंठ वाले खड्ग को हाथ में लिये हुए उत्तर दिशा में हिमालय पर्वत की ओर चले। तपस्या के लिये दृढ़ निश्चय करके बड़ी उतावली के साथ जाते हुए वे अकेले ही एक भयंकर कण्टकाकीर्ण वन में पहुँचे, जो नाना प्रकार के फल-फूलों से भरा था, भाँति-भाँति के पक्षी जहाँ कलरव कर रहे थे, अनेक जातियों के मृग उस वन में सब-ओर विचरते रहते थे तथा कितने ही सिद्ध और चारण निवास कर रहे थे।

तदनन्तर कुन्तीनन्दन अर्जुन के उस निर्जन वन में पहुँचते ही आकाश में शंखों और नगाड़ों का गम्भीर घोष गूंज उठा। पृथ्वी पर फूलों की बड़ी भारी वर्षा होने लगी। मेघों की घटा घिरकर आकाश में सब ओर छा गयी। उन दुर्गम वनस्थलियों को लांघकर अर्जुन हिमालय के पृष्ठ भाग में एक महान् पर्वत के निकट निवास करते हुए शोभा पाने लगे। वहाँ उन्होंने फूलों से सुशोभित बहुत-से वृक्ष देखे, जो पक्षियों के मधुर शब्द से गुंजायमान हो रहे थे। उन्होंने वैदूर्यमणि के समान स्वच्छ जल से भरी हुई शोभामयी कितनी ही नदियां देखीं, जिनमें बहुत-सी भंवरें उठ रही थीं। हंस, कारण्डव तथा सारस आदि पक्षी वहाँ मीठी बोली बोलते थे। तटवर्ती वृक्षों पर कोयल मनोहर शब्द बोल रही थी। क्रौंच के कलरव और मयूरों की केकाध्वनि भी वहाँ सब और गूंजती रहती थी। उन नदियों के आसपास मनोहर वनश्रेणी सुशोभित होती थी। हिमालय के उस शिखर पर पवित्र, शीतल और निर्मल जल से भरी हूई उन सुन्दर सरिताओं का दर्शन करके अतिरथी अर्जुन का मन प्रसन्नता से खिल उठा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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