महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 87 श्लोक 1-17

सप्ताशीति (87) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: सप्ताशीति अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
विदुर का धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
  • विदुर जी बोले- राजन! आप तीनों लोकों के श्रेष्ठतम पुरुष हैं और सर्वत्र आपका बहुत सम्मान होता है। भारत! इस लोक में भी आपकी बड़ी प्रतिष्ठा और सम्मान है। (1)
  • इस समय आप अंतिम अवस्था [1] में स्थित हैं। ऐसी स्थिति में आप जो कुछ कह रहे हैं, वह शास्त्र से अथवा लौकिक युक्ति से भी ठीक ही है। इस सुस्थिर विचार के कारण ही आप वास्तव में स्थविर[2] हैं। (2)
  • राजन! जैसे चंद्रमा में कला है, सूर्य में प्रभा है और समुद्र में उताल तरंगें हैं, उसी प्रकार आप में धर्म की स्थिति है। यह समस्त प्रजा निश्चित रूप से जानती है। (3)
  • भूपाल! आपके सद्गुण समूह से सदा ही इस जगत की उन्नति एवं प्रतिष्ठा हो रही है। अत: आप अपने बंधु-बांधवों सहित सदा ही इन सद्गुणों की रक्षा के लिए प्रयत्न कीजिये। (4)
  • राजन! आप सरलता को अपनाइए। मूर्खतावश कुटिलता का आश्रय ले अपने अत्यंत प्रिय पुत्रों, पौत्रों तथा सुहृदों का महान सर्वनाश न कीजिये। (5)
  • नरेश्वर! श्रीकृष्ण को अतिथि के रूप में पाकर आप जो उन्हें बहुत-सी वस्तुएँ देना चाहते हैं, उन सबके साथ-साथ वे आपसे इस समूची पृथ्वी के भी पाने के अधिकारी हैं। (6)
  • मैं सत्य की शपथ खाकर अपने शरीर को छूकर कहता हूँ कि आप धर्म पालन के उद्देश्य से अथवा श्रीकृष्ण का प्रिय करने के लिए उन्हें वे सब वस्तुएं नहीं देना चाहते हैं। (7)
  • यज्ञों में बहुत-सी दक्षिणा देने वाले महाराज! मैं सच कहता हूँ। यह सब आपकी माया और प्रवंचना मात्र है। आपके इन बाह्य व्यवहारों में छिपा हुआ जो आपका वास्तविक अभिप्राय है, उसे मैं समझता हूँ। (8)
  • नरेंद्र! बेचारे पांचों भाई पांडव आपसे केवल पाँच गाँव ही पाना चाहते हैं, परंतु आप उन्हें वे गाँव भी नहीं देना चाहते हैं। इससे स्पष्ट सूचित होता है कि आप संधिद्वारा शांति-स्थापन नहीं करेंगे। (9)
  • आप तो धन देकर महाबाहु श्रीकृष्ण को अपने पक्ष में लाना चाहते हैं और इस उपाय से आप यह आशा रखते हैं कि आप उन्हें पांडवों की ओर से फोड़ लेंगे। (10)
  • परंतु मैं आपको असली बात बताए देता हूँ, आप धन देकर अथवा दूसरा कोई उद्योग या निंदा करके श्रीकृष्ण को अर्जुन से पृथक नहीं कर सकते। (11)
  • मैं श्रीकृष्ण के माहात्मय को जानता हूँ। श्रीकृष्ण के प्रति अर्जुन की जो सुदृढ़ भक्ति है, उससे भी परिचित हूँ। अत: मैं यह निश्चित रूप से जानता हूँ कि श्रीकृष्ण अपने प्राणों के समान प्रिय सखा अर्जुन को कभी त्याग नहीं सकते। (12)
  • इसलिए आपकी दी हुई वस्तुओं में जल से भरे हुए कलश, पैर धोने के लिए जल और कुशल-प्रश्न को छोड़कर दूसरी किसी वस्तु को श्रीकृष्ण स्वीकार नहीं करेंगे। (13)
  • राजन! सम्मानीय महात्मा श्रीकृष्ण का जो परम प्रिय आतिथ्य है, वह तो कीजिये ही, क्योंकि वे भगवान जनार्दन सबके द्वारा सम्मान पाने के योग्य हैं। (14)
  • महाराज! भगवान केशव उभयपक्ष के कल्याण की इच्छा लेकर जिस प्रयोजन से इस कुरुदेश में आ रहे हैं, वही उन्हें उपहार में दीजिये। (15)
  • राजेन्द्र! दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण आप, दुर्योधन तथा पांडवों में संधि कराकर शांति स्थापित कराना चाहते हैं। अत: उनके इस कथन का पालन कीजिये, इसी से वे संतुष्ट होंगे। (16)
  • महाराज! आप पिता हैं और पांडव आपके पुत्र हैं। आप वृद्ध हैं और वे शिशु हैं। आप उनके प्रति पिता के समान स्नेहपूर्ण बर्ताव कीजिये। वे आपके प्रति सदा ही पुत्रों की भाँति श्रद्धा-भक्ति रखते हैं। (17)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुरवाक्य विषयक सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बुढ़ापे
  2. वृद्ध

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