चतु:सप्ततितम (74) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: चतु:सप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद
इन्द्र बोले- शकुन्तले! तुम्हारा यह पुत्र चक्रवर्ती सम्राट होगा। पृथ्वी पर कोई भी इसके बल, तेज तथा रुप की समानता नहीं कर सकता। यह पुरुवंश का रत्न सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करेगा। राजसूय आदि यज्ञों के द्वारा सहस्रों बार अपना सारा धन ब्राह्मणों के अधीन करके उन्हें अपरिमित दक्षिणा देगा। वैशम्पायन जी कहते हैं- इन्द्रादि देवताओं का यह वचन सुनकर कण्व के आश्रम में रहने वाले सभी महर्षि कण्व कन्या शकुन्तला के सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। यह सब सुनकर शकुन्तला को भी बड़ा हर्ष हुआ। पुण्यावानों में श्रेष्ठ महायशस्वी कण्व ने मुनियों से ब्राह्मणों को बुलाकर उनका पूर्ण सत्कार करके बालक का विधिपूर्वक जातकर्म आदि संस्कार कराया वह बुद्धिमान बालक प्रतिदिन बढ़ने लगा। वह सफेद और नुकीले दांतों से शोभा पा रहा था। उसके शरीर का गठन सिंह के समान था। वह ऊँचे कद का था। उसके हाथों में चक्र के चिह्न थे। वह अद्भुत शोभा से सम्पन्न, विशाल मस्तक वाला और महान् बलवान् था। देवताओं के बालक-सा प्रतीत होने वाला वह तेजस्वी कुमार वहाँ शीघ्रतापूर्वक बढ़ने लगा। छ: वर्ष की अवस्था में ही वह बलवान् बालक कण्व के आश्रम में सिंहों, व्याघ्रों, वराहों, भैंसों और हाथियों को पकड़ कर खींच लाता और आश्रम के समीपवर्ती वृक्षों में बांध देता था। फिर वह सबका दमन करते हुए उनकी पीठ पर चढ़ जाता और क्रीड़ा करते हुए उन्हें सब ओर दौड़ाता हुआ दौड़ता था। वहाँ सब राक्षस और पिशाच आदि शत्रुओं को युद्ध में मुष्टि प्रहार के द्वारा परास्त करके वह राजकुमार ऋषि मुनियों की आराधना में लगा रहता था। एक दिन कोई महाबली दैत्य उसे मार डालने की इच्छा से उस वन में आया। वह उसके द्वारा प्रतिदिन सताये जाते हुए दूसरे दैत्यों की दशा देखकर अमर्ष में भरा हुआ था। उसके आते ही राजकुमार ने हंसकर उसे दोनों हाथों से पकड़ लिया और अपनी बांहों में दृढ़तापूर्वक कसकर दबाया। वह बहुत जोर लगाने पर भी अपने को उस बालक के चंगुल से छुड़ा न सका, अत: भयंकर स्वर से चीत्कार करने लगा। उस समय दबाब के कारण उसकी इद्रियों से रक्त बह चला। उसकी चीत्कार से भयभीत हो मृग और सिंह आदि जंगली जीव मल-मूत्र करने लगे तथा आश्रम पर रहने वाले प्राणियों की भी यही दशा हुई। दुष्यन्तकुमार ने घुटनों से मार-मार कर उस दैत्य के प्राण ले लिये; तत्पश्चात उसे छोड़ दिया। उसके हाथ से छूटते ही वह दैत्य गिर पड़ा। उस बालक का यह पराक्रम देखकर सब लोगों को बड़ा विस्मय हुआ। कितने ही दैत्य और राक्षस प्रतिदिन उस दुष्यन्तकुमार के हाथों मारे जाते थे। कुमार के भय से उन्होंने कण्व के आश्रम पर जाना छोड़ दिया। यह देख कण्व के आश्रम में रहने वाले ऋषियों ने उसका नया नामकरण किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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