महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 135 श्लोक 1-21

पंचस्त्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- भरतनन्दन! इस जगत में ब्राह्मण को किनके यहाँ भोजन करना चाहिये, क्षत्रिय को किनके घर का अन्न ग्रहण करना चाहिये तथा वैश्य और शूद्र को किन-किन लोगों के घर भोजन करना चाहिये?

भीष्म जी ने कहा- बेटा! इस लोक में ब्राह्मण को ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के घर भोजन करना चाहिये। शूद्र के घर भोजन करना उसके लिये निषिद्ध है। इसी प्रकार क्षत्रिय को ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के घर ही भोजन ग्रहण करना चाहिये। भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार न करके सब कुछ खाने वाले और शास्त्र के विरुद्ध आचरण करने वाले शूद्रों का अन्न उसके लिये भी त्याज्य है। वैश्यों में भी जो नित्य अग्निहोत्र करने वाले, पवित्रता से रहने वाले और चातुर्मास्य व्रत का पालन करने वाले हैं, उन्हीं का अन्न ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिये ग्राह्य है।

जो द्विज शूद्रों के घर का अन्न खाता है, वह समस्त पृथ्वी और सम्पूर्ण मनुष्यों के मल का ही पान और भक्षण करता है। जो शूद्रों का अन्न खाता है, वह पृथ्वी का मल खाता है। शूद्रान्न भोजन करने वाले सभी द्विज पृथ्वी का मल ही खाते हैं। जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य शूद्र के कर्मों में संलग्न रहने वाला हो, वह यदि विशिष्ट कर्म-संध्या-वन्दन आदि में संलग्न रहने वाला हो, तो भी नरक में पकाया जाता है। यदि शूद्र के कर्म न करके भी वह शास्त्रविरुद्ध कर्म में संलग्न रहता हो तो भी उसे नरक की यातना भोगनी पड़ती है।

ब्राह्मण वेदों के स्वाध्याय में तत्पर और मनुष्यों के लिये मंगलकारी कार्य में लगे रहने वाले होते हैं। क्षत्रिय को सबकी रक्षा में तत्पर बताया गया है और वैश्य को प्रजा की पुष्टि के लिये कृषि, गोरक्षा आदि कार्य करने चाहिये। वैश्य जो कर्म करता है, उसका आश्रय लेकर सब लोग जीविका चलाते हैं। कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- ये वैश्य के अपने कर्म हैं। इससे उसको घृणा नहीं होनी चाहिये। जो वैश्य अपना कर्म छोड़कर शूद्र का कर्म करता है, उसे शूद्र के समान ही जानना चाहिये और उसके यहाँ कभी भोजन नहीं करना चाहिये।

जो चिकित्सा करने वाला, शस्त्र बेचकर जीविका चलाने वाला, ग्रामाध्यक्ष, पुरोहित, वर्षफल बताने वाला ज्योतिषी और वेद-शास्त्र से भिन्न व्यर्थ की पुस्तकें पढ़ने वाला है, वे सब-के-सब ब्राह्मण शूद्र के समान हैं। जो निर्लज्ज मनुष्य शूद्रोचित कर्म करने वाले इन द्विजों के घर भोजन करता है, वह अभक्ष्य-भक्षण का पाप करके दारुण भय को प्राप्त होता है। उसके कुल, वीर्य और तेज नष्ट हो जाते हैं तथा वह धर्म-कर्म से हीन होकर कुत्ते की भाँति तिर्यक योनि में पड़ जाता है। जो चिकित्सा करने वाले वैद्य का अन्न खाता है, उसका वह अन्न विष्ठा के समान है। व्यभिचारिणी स्त्री या वेश्या का अन्न मूत्र के समान है। कारीगर का अन्न रक्त के तुल्य है। जो साधु पुरुषों द्वारा सम्मानित पुरुष विद्या बेचकर जीविका चलाने वाले ब्राह्मण का अन्न खाता है, उसका वह अन्न भी शूद्रान्न के ही समान है। अतः साधु पुरुष को उसका परित्याग कर देना चाहिये।

जो कलंकित मनुष्य का अन्न ग्रहण करता है, उसे रक्त का कुण्ड कहते हैं। जो चुगुलखोर के यहाँ भोजन करता है, उसका वह भोजन करना ब्रह्महत्या के समान माना गया है। असत्कार और अवहेलनापूर्वक मिले हुए भोजन को कभी नहीं ग्रहण करना चाहिये। जो ब्राह्मण ऐसे अन्न का भोजन करता है, वह रोगी होता है और शीघ्र ही उसके कुल का संहार हो जाता है। जो नगररक्षक का अन्न खाता है, वह चण्डाल के समान होता है। गो वध, ब्राह्मण वध, सुरापान और गुरुपत्नीगमन करने वाले मनुष्य के यहाँ भोजन कर लेने पर ब्राह्मण राक्षसों के कुल की वृद्धि करने वाला होता है। धरोहर हड़पने वाले, कृतघ्न तथा नपुंसक का अन्न खा लेने से मनुष्य मध्यदेशबहिष्कृत भीलों के घर में जन्म लेता है।

कुन्तीनन्दन! जिनके यहाँ खाना चाहिये और जिनके यहाँ नहीं खाना चाहिये, ऐसे लोगों का मैंने विधिवत परिचय दे दिया। अब मुझसे और क्या सुनना चाहते हो।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में भोज्याभोज्यान्न कथन नामक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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