द्वयधिकद्विशततम (202) अध्याय: द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: द्वयधिकद्विशततम अध्याय: 54-69 श्लोक का हिन्दी अनुवाद
देवताओं को उस समय कहीं भी सुख और शान्ति नहीं मिली, महेश्वर के कुपित होने से सहसा यज्ञ में उपद्रव खड़ा हो गया था। पार्थ! उनके धनुष की प्रत्यंचा के गम्भीर घोष से अत्यन्त व्याकुल हो सम्पूर्ण लोक उनके अधीन हो गये। देवता और असुर सभी धरती पर गिर पड़े। समुद्र के जल में ज्वार आ गया, धरती काँपने लगी, पर्वत टूट-टूटकर बिखरने लगे और दिग्गज मूर्च्छित हो गये। घोर अन्धकारक से आच्छादित हो जाने के कारण सम्पूर्ण लोको में कहीं भी प्रकाश नहीं रह गया। भगवान शिव ने सूर्य सहित सम्पूर्ण ज्योतियों की प्रभा नष्ट कर दी। महर्षि भी भयभीत एवं क्षुब्ध हो उठे। वे सम्पूर्ण भूतों के तथा अपने लिये भी सुख चाहते हुए पुण्याह वाचन आदि शान्ति कर्म करने लगे। उस समय हँसते हुए से भगवान शंकर ने पूषा पर आक्रमण किया। वे पुरोडाश खा रहे थे। उन्होंने उनके सारे दाँत तोड़ डाले। तदनन्तर सारे देवता नतमस्तक हो भय से थर-थर काँपते हुए यज्ञशाला से बाहर निकल गये। तब भगवान शिव ने देवताओं को लक्ष्य करके तीखे और तेजस्वी बाणों का संधान किया। धूम और चिनगारियों सहित वे बाण बिजली सहित मेघों के समान जान पड़ते थे। तब सम्पूर्ण देवताओं ने भगवान महेश्वर को कुपित देख उनके चरणों में प्रणाम किया और रुद्र के लिये उन्होंने विशिष्ट यज्ञभाग की कल्पना की। राजन! सब देवता भयभीत हो भगवान शंकर की शरण में आये। तब क्रोध शान्त होने पर उन्होंने उस यज्ञ को पूर्ण किया। उन दिनों देवता लोग भाग खड़े हुए थे, तभी से आज तक वे देवता उनसे डरते रहते हैं। पूर्वकाल में परम पराक्रमी तीन असुरों के आकाश में तीन नगर थे। एक लोहे का, दूसरा चाँदी का और तीसरा अत्यन्त विशाल नगर सोने का बना हुआ था। उनमें से सोने का नगर कमलाक्ष के, चाँदी का तारकाक्ष के तथा तीसरा लोहे का बना हुआ नगर विधुन्माली के अधिकार में था। इन्द्र सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करके भी उन नगरों का भेद न कर सके। तब उनसे पीड़ित हुए सम्पूर्ण देवता भगवान शंकर की शरण में गये। इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं ने महात्मा भगवान शंकर से कहा- ‘प्रभो! ब्रह्मा जी से वरदान पाकर ये त्रिपुर निवासी घोर दैत्य सम्पूर्ण जगत को अधिकाधिक पीड़ा दे रहे है; क्योंकि वरदान प्राप्त होने से उनका घमंड बहुत बढ गया है। ‘देव देवेश्वर महादेव! आपके सिवा दूसरा कोई उन दैत्यों का वध करने में समर्थ नहीं है; अतः आप उन देव द्रोहियों को मार डालिये। ‘भुवनेश्वर! रुद्र! आप जब इन असुरों का विनाश कर डालेंगे, तब से सम्पूर्ण यज्ञकर्मो में जो पशु होंगे, वे रुद्र के भाग समझे जायेंगे’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज