हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचसप्तितम अध्याय: श्लोक 22-42 का हिन्दी अनुवादबीच में अदिति सहित कश्यप को खड़ा हुआ देख वे दोनों महाबली वीर रथों से पृथ्वी पर उतर गये। शत्रुओं का दमन करने वाले उन दोनों वीरों ने हथियार नीचे डालकर समस्त भूतों के हित में तत्पर रहने वाले धर्म तत्त्व के ज्ञाता माता-पिता को प्रणाम किया। उस समय अदिति ने दोनों को हाथों से पकड़कर कहा- 'जो एक माता की कौख से पैदा न हुए हों, ऐसे दो व्यक्तियों की भाँति तुम दोनों एक-दूसरे को मारने की इच्छा क्यों करते हो। छोटी सी वस्तु को सामने रखकर यह अत्यन्त दारुण कर्म आरम्भ हो गया। मैं सब प्रकार से विचार करके देखती हूँ तो यह काम मुझे अपने पुत्रों के योग्य नहीं दिखायी देता। यदि तुम दोनों को माता की बात सुननी है और अपने पिता प्रजापति की आज्ञा का पालन करना है तो तुम दोनों नीचे हथियार डालकर सामने खडे़ हो जाओ और मैं जो कहूँ, उसे मानो।' तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर दोनों महाबली देवता स्नान की इच्छा से परस्पर बात करते हुए गंगा तट पर गये। इन्द्र ने कहा- (श्रीकृष्ण) तुम समस्त संसार की सृष्टि करने वाले प्रभु हो! तुमने ही सारी त्रिलोकी के राज्य पर मुझे स्थापित किया है। स्थापित करके फिर किसलिये मेरा अपमान करते हो? कमलनयन! तुम मेरे भाई होकर भी मेरी ज्येष्ठता को दूर हटाकर उसका कुछ भी खयाल न करके कैसे मेरे जीवन दीप को सदा के लिए बुझा देना चाहते हो?' नरेश्वर! गंगा जी के जल में नहाकर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले वे दोनों महात्मा श्रीकृष्ण और इन्द्र जहाँ कश्यप और अदिति विद्यमान थे, वहाँ पुन: आ पहुँचे। मुनि लोग उस स्थान का नाम प्रियसंगमन बतलाते हैं, जहाँ वे दोनों कमललोचन बन्धु माता पिता से मिले थे। कुरुनन्दन! तदनन्तर श्रीकृष्ण ने इन्द्र को उस स्थान पर अपनी वाणी द्वारा अभयदान दिया, जहाँ समस्त धर्माचारी देवता एकत्र थे। तत्पश्चात सब देवता उत्तम समृद्धि से, जो उन्हीं के अनुरूप थी, युक्त हो अपने-अपने विमानों द्वारा स्वर्गलोक को गये। राजन! कश्यप, अदिति, इन्द्र और श्रीकृष्ण ये सब लोग एक विमान पर बैठकर स्वर्गलोक को गये। कुरुनन्दन! सर्वसद्गुणसम्पन्न रमणीय इन्द्र भवन में पहुँचकर वे समस्त धर्माचारी महात्मा बड़े आनन्द के साथ एक ही जगह ठहरे। धर्मवत्सला शची ने समस्त भूतों के हित में तत्पर रहने वाले पत्नी सहित महात्मा कश्यप की परिचर्या की। तदनन्तर जब रात बीती और प्रात:काल हुआ, तब धर्म के तत्त्व को जानने वाली अदिति ने श्रीकृष्ण से यह समस्त प्राणियों के लिए हितकर वचन कहा- ‘उपेन्द्र! द्वारका को जाओ और पारिजात भी लेते जाओ। ईश! बहू सत्यभामा के हृदय में जो पुण्यक नामक व्रत का उत्सव करने की इच्छा है, उसे पूर्ण कराओ। पुरुषश्रेष्ठ! सत्यभामा द्वारा पुण्यक व्रत का अनुष्ठान पूर्ण हो जाने पर फिर तुम्हीं इस वृक्ष को नन्दन वन में यथोचित स्थान पर स्थापित कर देना।' तब श्रीकृष्ण ने यशस्विनी देवमाता अदिति से, जिन्हें महात्मा नारद जी ने धार्मिक गुणों से सम्पन्न बताया था, कहा ‘ऐसा ही होगा’। तदनन्तर पिता माता को तथा शची सहित महेन्द्र को प्रणाम करके श्रीकृष्ण द्वारका की ओर प्रस्थित हुए। कुरुनन्दन! उस समय धर्मचारिणी शची ने श्रीकृष्ण की सभी पत्नियों के लिए बहुत से उपहार दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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