हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-18

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

इन्द्र और श्रीकृष्ण, जयन्त और प्रद्युम्न, प्रवर और सात्यकि तथा ऐरावत और गरूड का युद्ध

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर सूर्योदय के बाद दो घड़ी बीत जाने पर महातेजस्वी श्रीकृष्ण हिंसक जन्तुओं का शिकार खेलने के बहाने रैवतक पर्वत पर गये। कुरुकुलभूषण भगवान श्रीकृष्ण ने एक रथ पर नरश्रेष्ठ सात्यकि को चढ़ाकर और प्रद्युम्न को भी अपने पीछे आने की आज्ञा देकर जब रैवतक पर्वत पर पहुँचे, तब अपने सारथि दारुक से बोले- ‘सौम्य दारुक तुम मेरे इस रथ को लेकर यहीं आधे दिन तक इन को काबू में रखते हुए मेरी प्रतीक्षा करो। सूतशिरोमणे! मैं रथ के द्वारा ही द्वारकापुरी में प्रवेश करूंगा।' दारूक को संदेश देकर विजय के लिये उद्यत हुए अप्रमेय पराक्रमी बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण सात्यकि के साथ गरुड़ पर आरूढ़ हुए। कुरुनन्दन! राजन! शत्रुसूदन प्रद्युम्न भी एक पृथक आकाशचारी रथ के द्वारा श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे गये। बुद्धिमान श्रीकृष्ण पारिजात को हर लेने की इच्छा से पलक मारते-मारते देवताओं के उद्यान नन्दनवन में जा पहुँचे। वहाँ भगवान अधोक्षज ने नन्दनवन में स्थित हुए देवताओं दुर्जय वीर योद्धाओं को देखा, जो नाना प्रकार के आयुध धारण किये हुए थे।

भरतनन्दन! सत्पुरुषों के आश्रय दाता महाबली श्रीकृष्ण ने उन योद्धाओं को देखते देखते विशेष प्रयत्न के बिना ही पारिजात को उखाड़कर पक्षिराज गरुड़ की पीठ पर रख लिया। पारिजात-वृक्ष मूर्तिमान होकर श्रीकृष्ण की सेवा में उपस्थित हुआ। भारत! उस समय वसुदेवनन्दन महात्मा केशव ने पारिजात को सान्त्वना देते हुए कहा- ‘वृक्ष! तुम डरो मत।’ पारिजात वृक्ष को अपने साथ प्रस्थान करते देख भगवान अधोक्षज ने श्रेष्ठ अमरावती पुरी की परिक्रमा की। नरेश्वर! नन्दन वन के उन रक्षकों ने जाकर महेन्द्र से कहा- ‘देवराज! वृक्षों में उत्तम पारिजात का अपहरण हो रहा है।’ यह सुनकर प्रभावशाली पाकशसन इन्द्र ऐरावत पर आरूढ़ हो निकले। उनके पीछे-पीछे रथ पर बैठा हुआ जयन्त भी आया। जब शत्रुनाशन केशव इन्द्रपुरी के पूर्वद्वार पर आये तब उन्हें देखकर कर इन्द्र ने कहा- ‘हे मधुसूदन! यह तुमने क्या किया है?’ तब गरुड़ पर बैठे हुए केशव इन्द्र को प्रणाम करके बोले। ‘देवराज! आपकी बहुरानी के पुण्य कार्य सम्पादन करने के लिये यह श्रेष्ठ वृक्ष यहाँ से ले जाया जाता है।’ तब इन्द्र ने उनसे कहा- 'कमलनयन अच्युत! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। बिना युद्ध किये तुम्हें इस वृक्ष को नहीं ले जाना चाहिये। महाबाहु केशव! पहले मुझ पर प्रहार करो। मेरे ऊपर मेरे कौमोद की गदा छोड़कर तुम्हारी प्रतिज्ञा सफल हो।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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