हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 127 श्लोक 1-21

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


अनिरुद्ध का नागपाश से छुटकारा और उनके द्वारा श्रीकृष्ण आदि की वन्दना, नारदजी के कहने से उनका वीर्य-विवाह, उषा की विदाई, सबका द्वारका को प्रस्थान, मार्ग में श्रीकृष्ण द्वारा वरुण देवता पर विजय, वरुण द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति और पूजा, श्रीकृष्ण के आगमन से द्वारकावासियों का हर्ष, भगवान के आदेश से पुरवासियों द्वारा देवताओं की वन्दना, इन्द्र द्वारा श्रीकृष्ण की प्रशंसा और सब देवताओं तथा ऋषियों आदि का अपने-अपने स्थान को जाना।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार बहुत से वर पाकर बाणासुर का मन प्रसन्न हो गया। वह महाकालत्व को प्राप्त होकर भगवान शिव के साथ चला गया। इधर भगवान श्रीकृष्ण ने नारद जी से बारम्बार पूछा- ‘भगवन! अनिरुद्ध कहाँ नागपाश में बँधे हुए हैं, मैं इसे ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ। मेरा हृदय स्नेह से आकुल हो रहा है। वीर अनिरुद्ध का अपहरण होने से सारी द्वारकापुरी क्षुब्ध हो उठी है। अत: हम लोग शीघ्र उन्हें बन्धन से छुड़ायेंगे, जिसके लिये कि हमारा यहाँ आगमन हुआ है। अनिरुद्ध का शत्रु नष्ट हो गया, अब हम उन्हें देखना और उनसे मिलना चाहते हैं। उत्तम व्रत का पालन करने वाले भगवान नारद! जहाँ अनिरुद्ध हैं, वह स्थान आपको विदित है’। श्रीकृष्ण के इस प्रकार पूछने पर नारद जी ने उत्तर दिया- ‘माधव! कुमार अनिरुद्ध कन्या के अन्त:पुर में नागपाश से बँधे हुए हैं’। इसी बीच में चित्रलेखा शीघ्रतापूर्वक वहाँ उपस्थित हुई और बोली- 'देव! जिसने भगवान शंकर को ही सर्वोपरि मानकर उनकी आराधना की है, उस दैत्यराज महात्मा बाणासुर का अन्त:पुर यही है। आप इसमें सुखपूर्वक प्रवेश कीजिये।' तब बलराम, गरुड़, श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न और नारद ये सब लोग अनिरुद्ध को बन्धन से मुक्त करने के लिये बाणासुर के अन्त:पुर में प्रविष्ट हुए। फिर तो गरुड़ को देखते ही अनिरुद्ध के शरीर में जो बाणरूपी महासर्प उनके सारे अंगों को आवेष्टित करके स्थित थे, वे सब सहसा उनकी देह से निकलकर पृथ्वी पर गिर पड़े और साधारण बाणों के रूप में परिणत हो गये। श्रीकृष्ण का दर्शन और स्पर्श पाकर महायशस्वी अनिरुद्ध मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और खड़े हो हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले।

अनिरुद्ध ने कहा- 'देवाधिदेव केशव! आप सदा ही युद्ध में विजयी हैं। प्रभो! तदनन्तर महामनस्वी अनिरुद्ध ने बड़े हर्ष के साथ महान बलशाली यशस्वी बलभद्रदेव को प्रणाम किया। फिर हाथ जोड़कर महात्मा माधव तथा महापराक्रमी पक्षिप्रवर गरुड़ का पृथक-पृथक अभिवादन करके उन्होंने अपने पिता विचित्र बाणाधारी सर्वसमर्थ मकरध्वज प्रद्युम्न के पास जाकर उन्हें भी प्रणाम किया। तत्पश्चात उस भवन में रहने वाली सखियों सहित उषा ने आकर अत्‍यंत बलशाली बलराम, परम दुर्जय वासुदेव और अप्रमेय गतिशाली गरुड़ को प्रणाम करके पुष्पबाणधारी प्रद्युम्न को भी लज्जापूर्वक नमस्कार किया। तब इन्द्र के कहने से परमतेजस्वी नारदजी पुन: भगवान श्रीकृष्ण के समीप हँसते हुए आये। वे शत्रुसूदन गोविन्ददेव को बधाई देते हुए बोले- ‘गोविन्द! बड़े सौभाग्‍य की बात है कि आज आप अनिरुद्ध से मिलकर अभ्युदय को प्राप्त हुए हैं।' तब अनिरुद्ध सहित वे सब लोग नारदजी के चरणों में प्रणाम करके खड़े हो गये, तब देवर्षि ने आशीर्वाद से उन सब के अभ्युदय की कामना करके श्रीकृष्ण से कहा- ‘प्रभो! आप यहाँ अनिरुद्ध का ‘वीर्य[1] नामक विवाह कीजिये, मुझे जम्बूलमालिका[2] देखने और सुनने के लिये बड़ी श्रद्धा (इच्छा) हो रही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बल-पराक्रम द्वारा जीती गयी कन्या का विवाह ‘वीर्य-विवाह’ कहलाता है।
  2. वर-वधू के विवाह के समय कन्यापक्ष की स्त्रियों द्वारा वर पक्ष की स्त्रियों को जो प्रेमपूर्ण परिहास के रूप में गाली दी जाती है, उसका नाम जम्बूल है। उसकी परम्परा को जम्बूल मालिका कहा गया है। (नीलकण्ठ)

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