हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-12

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्‍ण का कंस वध के लिये पश्चातापपूर्वक उसके औचित्‍य का समर्थन, उग्रसेन का श्रीकृष्‍ण को सर्वस्‍व-समर्पण के पश्चात कंस का अन्‍त्‍येष्टि संस्‍कार करने के लिये अनुरोध, श्रीकृष्‍ण का उन्‍हें समझा-बुझाकर राज्‍य पर अभिषिक्त करना और समस्‍त यादवों के साथ जाकर कंस आदि का अन्‍त्‍येष्टि-संस्‍कार कराना।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा उग्रसेन पुत्र शोक से संतप्त एवं दु:खी होकर श्रीकृष्‍ण के समीप गये। उस समय वे इस प्रकार लम्‍बी सांस खींच रहे थे, मानो उन्‍होंने विष पी लिया हो उन्‍होंने देखा, पिता के घर में श्रीकृष्‍ण यादवों से घिरे हुए बैठे हैं और कंस के निधन से मलिन-मुख हो पश्चाताप करते हुए चिन्‍तामग्न हो रहे हैं। वे कंस की पत्नियों के बहुतेरे करुण विलाप सुनकर उस यादव-समाज में अपनी निन्‍दा करते हुए बोले- 'अहो! मैंने अत्‍यन्‍त अविवेक के कारण रोष वश दोष का ही अनुसरण किया और इस कंस का वध करके हजारों स्त्रियों को विधवा बना दिया है साधारण मनुष्‍यों को भी स्त्रियों पर दया हो जाती है, परंतु मेरे द्वारा अपने पति के मारे जाने पर जो इस प्रकार आर्त होकर रो रही है, उन रानियों के प्रति केवल पश्चाताप प्रकट करके मैं अपना शोक प्रकाशित कर रहा हूँ।

इन भोली-भाली स्त्रियों के विलाप को सुनकर तो यमराज के हृदय में भी करुणा का संचार हो सकता है। मैंने तो पहले से ही यह निश्चय कर लिया था कि कंस का वध ही श्रेष्ठ है। जो सदा पापों में तत्‍पर रहने के कारण साधु पुरुषों की दृष्टि में भी उद्वेगनीय (उद्वेग में डालने योग्‍य) हो गया हो, संसार में सदाचार से गिर गया हो तथा सब लोग जिससे विद्वेष रखने लगे हों, ऐसे मन्‍द बुद्धि पुरुष का मर जाना ही श्रेयस्‍कर है। वही उसे क्‍लेश से छुटकारा दिलाने वाला है, जीवित रहना नहीं। कंस सदा पापों में ही लगा रहता था, साधु पुरुष भी (उसे दुष्ट समझकर) उसका आदर नहीं करते थे तथा वह सबका धिक्कार पाकर पतित हो गया था, अत: उसके जीवन पर क्‍या दया हो सकती है?

तपस्‍वी पुरुषों को जो स्‍वर्गलोक में निवास प्राप्त होता है, वह उनके पुण्‍यकर्म का ही फल है। पुण्‍यात्‍मा पुरुष इस जगत में भी यशस्‍वी होता है और स्‍वर्गवासी देवता भी उसे सादर ग्रहण करते हैं। यदि सब लोग संतुष्ट हों, सारी प्रजाधर्म में तत्‍पर रहे और मनुष्‍यों की केवल धर्म में ही प्रवृति हो तो परलोक में धर्मराज उसे उसका फल देते हैं। सम्‍पूर्ण लोकों में धर्म (उसके फलस्‍वरूप सुख की प्राप्ति) ही अभीष्ट है, इसलिये उनमें रहने वाले पुरुषों को परलोक में सुख देने वाले पुण्‍यकर्मों का ही अनुष्ठान करना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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