हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 94 श्लोक 1-19

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुर्नवतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

प्रद्युम्‍न और प्रभावती का गान्‍धर्व-विवाह एवं समागम; फिर गद और चन्‍द्रवती का तथा साम्‍ब और गुणवती का गान्‍धर्व-विवाह

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! श्रीकृष्‍णकुमार प्रद्युम्न ने जब यह समझ लिया कि असुरबाला प्रभावती पर सर्वथा मेरा (काम का) आवेश हो गया है, तब वे प्रसन्‍न मन से हंसी से इस प्रकार बोले- ‘विहंगमे! तुम्‍हें मालूम होना चाहिये कि मैं भ्रमरों के साथ भ्रमर बनकर इसी माला में लुक-छिपकर यहाँ दैत्‍य राजकुमारी प्रभावती के पास आ गया हूँ। तुम इसे मेरे आगमन की सूचना दो। मैं प्रभावती का आज्ञा पालक हूँ। वह मेरे प्रति जैसा चाहे बर्ताव कर सकती है’ राजन! ऐसा कहकर सुन्‍दर रूप वाले प्रद्युम्‍न ने उसे अपने रूप का दर्शन कराया। वह प्रासादपृष्‍ठ प्रज्ञावान प्रद्युम्न की प्रभा से प्रकाशित हो उठा। उनकी कान्ति से चन्‍द्रमा की सुन्‍दर कान्ति भी तिरस्‍कृत हो गयी।। प्रद्युम्‍न को देखते ही प्रभावती के काम रूपी समुद्र में ज्‍वार आ गया; ठीक उसी तरह जैसे पूर्ण चन्‍द्रोदय का पर्व प्राप्‍त होने पर सरिताओं के स्‍वामी समुद्र में बाढ़ आ जाती है। प्रभावती का मुख लज्‍जा से कुछ नीचे झुक गया तो भी वह कुछ-कुछ तिरछी चितवन से अपने प्राणवल्‍लभ की ओर देख लेती थी। उस समय कमलनयनी प्रभावती स्थिर भाव से खड़ी थी। मनोहर आभूषणों से विभूषित हुई सुन्‍दरांगी प्रभावती के मुख के नीचे के भाग (ठोढ़ी) का हाथ से स्‍पर्श करके प्रद्युम्न का शरीर पु‍लकित हो गया। वे उससे इस प्रकार बोले- 'सुमुखि! तुम्‍हारा यह पूर्ण चन्‍द्रमा के समान कान्तिमान मुख मुझे सैकड़ों मनोरथों के द्वारा आज प्राप्‍त हुआ है। तुम इसे नीचे की ओर करके मुझसे कुछ बोलती क्‍यों नहीं हो? तुम अपने मुख चन्‍द्र की प्रभा का इस तरह तिरस्‍कार या लोभ न करो। भीरु! भय छोड़ो और इस दास पर भली-भाँति अनुग्रह करो। भीरु! तुम्‍हारा यह सलज्‍ज मौन-भाव मुझे इस समय के लिये उपयुक्‍त–सा नहीं दिखायी देता। भय त्‍याग दो। इसके लिये मैं यह हाथ जोड़कर याचना करता हूँ। समयोचित कर्तव्‍य क्‍या है- यह मुझसे सुनो। संसार में तुम्‍हारे रूप की कहीं तुलना नहीं है। तुम देश-काल के अनुरूप गान्‍धर्व-विवाह करके मुझ पर अनुग्रह करो।'

तदनन्‍तर वीर यादव प्रद्युम्‍न ने आचमन करके सूर्यकान्‍तमणि में स्थित अग्निदेव को प्रकट किया और उस समय मन्‍त्रों का उच्‍चारण करते हुए पुष्‍पों द्वारा आहूति दी। तत्‍पश्‍चात उन्‍होंने प्रभावती के सुन्‍दर आभूषणों से विभूषित हाथ को अपने हाथ में लिया और सूर्यकान्‍तमणि में विराजमान अग्निदेव की परिक्रमा की। उस समय सम्‍पूर्ण जगत के शुभाशुभ के साक्षी तेजस्‍वी भगवान अग्निदेव अच्‍युतकुमार प्रद्युम्‍न का आदर करते हुए वहाँ प्रज्‍वलित हो उठे। इसके बाद वीर यदुनन्‍दन ने ब्राह्मणों के उद्देश्‍य से दक्षिणा संकल्‍प करके द्वार पर खड़ी हुई हंसी से कहा- ‘पक्षिणि! तुम इस भवन के बाहरी द्वार पर खड़ी रहो और हम दोनों को दूसरों की दृष्टि पड़ने से बचाओ’। यह सुनकर हंसी उन्‍हें प्रणाम करके चली गयी। तब प्रद्युम्‍न मनोहर नेत्रों वाली प्रभावती का दाहिना हाथ पकड़कर उसे सुन्‍दर शय्या पर ले गये। वहाँ उसे अपनी जांघ पर ही बिठाकर उन्‍होंने बारम्‍बार सान्‍त्‍वना दी और अपने मुख की सुगन्धित वायु से उसके कपोल को सुवासित करते हुए धीरे से उसको चूम लिया। तत्‍पश्‍चात जैसे भ्रमर प्रफुल्‍ल कमल के मकरन्‍द का पान करता है, उसी प्रकार वे उसके मुखारविन्‍द का- उसके अधरों का रस पीने लगे। फिर क्रमश: रति-कलाकुशल प्रद्युम्‍न ने मनोहर नितम्‍ब वाली प्रभावती का पूर्णरूप से आलिंगन किया। रतिकला-कोविद एवं सामर्थ्‍यशाली श्रीकृष्‍णकुमार प्रद्युम्‍न उसके साथ एकान्‍त में रमण करने लगे। वे उसे उद्विग्‍न नहीं करते थे। कोई क्षुद्र बर्ताव (बलात्‍कार आदि) भी नहीं करते थे। उसके साथ रमण करते हुए वे रात भर वहीं रहे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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