हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षडविंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
तुम्हारे दर्शन की आशा लिये पुत्रशोक से सुखती जा रही है। बिना बछड़े की गाय के समान वह पुत्र-वियोग के शोक से संतप्त रहती है। उस दुखिया के नेत्रों में निरन्तर आंसू भरे रहते हैं। उसके वस्त्र मैले हो गये हैं। वह राहु के मुख में पड़ी हुई चन्द्रमा की प्रभा के समान जान पड़ती है। उसे सदा यही चिन्ता रहती है कि कब तुम्हारा दर्शन होगा। वह प्रतिदिन तुम्हारे शुभागमन की अभिलाषा रखती है। वह तपस्विनी नारी तुम्हारे शोक से शिथिल हो गयी है। प्रभो! बाल्यावस्था में ही वह तुमसे बिछुड़ गयी, अत: तुम्हारी मीठी-मीठी बातों में क्या रस है, इसको समझने की चतुरता उसमें नहीं आ सकी है। वह तुम्हारे रूप को नहीं जानती, चन्द्रमा के समान कान्तिमान इस मुख के दर्शन से भी वंचित रह गयी है। तात! यदि तुम्हें जन्म देकर देवकी इतना संताप सह रही है तो उसे संतान का क्या फल मिला? इससे तो उसका संतानहीन होना ही अच्छा था। जिन नारियों के पुत्र नहीं हुआ है, उन्हें एक ही शोक रहता है; परंतु जो पुत्रवती होकर भी पुत्र का फल न पा सके, वह उस धिक्कार पाने के योग्य संतान से सदा ही संतप्त होती रहती है। जिसके तुम्हारे समान गुणवान, इन्द्रतुल्य तेजस्वी तथा दूसरों को भी अभय दान देने वाला पुत्र हो, उस माता को शोक की भागिनी नहीं होना चाहिये। भैया! तुम्हारे बूढ़े माता-पिता दूसरे के दासभाव को प्राप्त हो गये हैं। पापपूर्ण विचार रखने वाला कंस उन्हें प्रतिदिन तुम्हारे कारण डांटता-फटकारता रहता है। तुम्हारे शरीर को अपने गर्भ में धारण करने वाली माता देवकी यदि लोकधारिणी पृथ्वी के समान माननीय है तो तुमने जैसे पृथ्वी का जल से उद्धार किया था, उसी प्रकार शोक सागर के जल में डूबी हुई उस देवकी का भी तुम्हें उद्धार करना चाहिये। श्रीकृष्ण! जिन्हें अपने पुत्र बहुत ही प्रिय हैं तथा जो सुख भोगने के योग्य हैं, उन बूढ़े वसुदेव को पुत्र-संयोग का सुख देकर तुम धर्म के भागी होओगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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