हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- प्रजानाथ! जनमेजय! जब अनुचरों सहित सब भूपाल गुफा में बंद कर दिये गये, तब असुरों पर मोह छा गया। श्रीकृष्ण, बलराम आदि रणदुर्मद यादवों द्वारा सब ओर से मारे जाते हुए वीर असुर सम्पूर्ण दिशाओं की ओर पलायन करने लगे। यह देख दानवश्रेष्ठ निकुम्भ रोष में भरकर उनसे बोला- ‘अरे! तुम लोग मोहवश अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर भय से पीड़ित और विह्वल होकर क्यों भागे जा रहे हो? प्रतिज्ञा हीन होकर भागे जाने वाले तथा पहले बदला लेने का निश्चय करके भी युद्ध में अपने भाई-बन्धुओं का ऋण उतारे बिना पीठ दिखाने वाले तुम लोग किन लोकों में जाओगे? समरांगण में निर्दयतापूर्वक जूझने वाले शत्रुओं को जीतकर इस लोक में उत्तम फल (राज्य आदि) का उपभोग प्राप्त होगा अथवा रण में मारे जाने पर शूरवीर को स्वर्गलोक में सुखदायक निवास सुलभ होगा। हे दैत्यों! भागकर घर जाकर किसका मुँह देखोगे (अथवा किसे मुँह दिखाओगे)? धिक्कार है, धिक्कार है। क्यों? क्यों तुम्हें लज्जा नहीं आती?’ नरेश्वर! निकुम्भ के ऐसा कहने पर वे असुर लज्जित होकर लौट पड़े और दुगुने वेग से यादवों के साथ युद्ध करने लगे। राजन! नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा युद्ध कुशल योद्धाओं के उस समरोत्सव में जो दैत्य यज्ञमण्डप की ओर जाते थे, उन्हें अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव तथा धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर मार डालते थे। जो लोग आकाश में जाते थे, उन्हें इन्द्रकुमार जयन्त और द्विजश्रेष्ठ प्रवर काल के गाल में भेज देते थे। फिर तो वहाँ वर्षा में बढ़ी हुई नदी के समान एक खून की नदी बह चली। असुरों के रक्त ही उसके जल थे। उनके सिर के केश ही उसमें सवार और घास के समान प्रतीत होते थे। रथ के पहिये उसमें कछुए- जैसे लगते थे और रथ भंवर के समान प्रतीत होते थे। हाथियों की लाशें पर्वतों की चट्टानों के समान उसकी शोभा बढ़ाती थीं। ध्वज और भाले तटवर्ती वृक्षों के समान उसे आच्छादित किये हुए थे। योद्धाओं का गरजना और चीखना ही उसका कलकल नाद था। वह नदी श्रीकृष्ण रूपी पर्वत से प्रकट हुई थी और भीरू पुरुषों के हृदय में भय उत्पन्न करती थी। रक्त के बुलबुले ही उसमें फेन थे और तलवारें ही मछलियों और तरंगों के समान प्रतीत हाेती थीं। निकुम्भ अपने उन शत्रुओं को बढ़ता हुआ और समस्त सहायकों को मारा गया देख अपने बल से ही ऊपर को उछला। भारत! ऊपर गये हुए रणकर्कश निकुम्भ को जयन्त और प्रवर ने अपने वज्रतुल्य बाणों द्वारा रोका। तब दुर्जय वीर निकुम्भ दांतों से ओठ दबाकर लौटा। उसने प्रवर पर परिघ से प्रहार किया। इससे वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। पृथ्वी पर गिरे हुए इन प्रवर को इन्द्रकुमार जयन्त ने अपनी दोनों भुजाओं से उठाकर हृदय से लगा लिया और जब उन्हें मालूम हुआ कि प्रवर जीवित हैं, तब वे उन्हें छोड़कर उस असुर की ओर दौड़े। निकुम्भ पर धावा करके जयन्त ने उसे खड्ग से मारा। तब उस दैत्य ने भी जयन्त पर परिघ से प्रहार किया। इन्द्रकुमार ने युद्ध स्थल में निकुम्भ के शरीर को प्राय: क्षत-विक्षत कर दिया। उनके द्वारा मारे जाते हुए उस महान असुर ने उस समय मन-ही-मन सोचा कि मुझे श्रीकृष्ण के साथ युद्ध करना चाहिये, क्योंकि वे मेरे बन्धु-बान्धवों के घातक एवं वैरी हैं। मैं युद्ध में इन्द्रकुमार के साथ लड़कर अपने लिये कौन-सी ख्याति प्राप्त करूँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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