हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-17

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुछ काल बीतने पर वे दोनों सौम्य बालक, जिनके नामकरण संस्कार हो चुके थे और जो कृष्ण और संकर्षण नाम से प्रसिद्ध थे, घुटनों के बल चलने-फिरने लगे। बचपन से ही वे दोनों बच्चे एक-दूसरे में अन्तर्भूत- से होकर एक को प्राप्त हो गये थे। ऐसा जान पड़ता था कि ये दोनो एक ही शरीर धारण करते हैं। वे दोनों भाई बालचन्द्र और बालसूर्य के समान कान्तिमान थे। वे दोनों मानो एक ही सांचे के ढले थे। (अथवा अभिन्‍न और जन्म रहित थे) एक-सी शैय्या, आसन और भोजन का उपयोग करते थे। एक समान वेषधारण करते थे और एक ही शिशु व्रत का पालन करने वाले थे। वे एक ही कार्य में संलग्न थे और एक ही शरीर के दो भाग-से प्रतीत होते थे। उनकी दिनचर्या एक-सी थी। वे महापराक्रमी बालक एक ही पिता के शिशु थे। लोगों की दृष्टि में वे एक-जैसे कद के थे। उन्होंने देवताओं के ‘दुष्ट दमन और धर्मस्थापन’ रूप सिद्धान्त के पालन के लिये मानव-शरीर ग्रहण किया था। वे सम्पूर्ण जगत के संरक्षक होकर भी गोप बालक बन गये थे।

वे दोनों भाई एक-दूसरे से मिली हुई क्रीड़ाओं द्वारा सुशोभित होते थे, जैसे आकाश में चन्द्रमा और सूर्य एक-दूसरे की किरणों से बँधकर एक साथ हो गये हों। उन दोनों की भुजाएं सर्पों के शरीर के समान जान पड़ती थीं। वे उनके द्वारा सब ओर चलते-फिरते और सरकते थे। उस समय धूल से भरे हुए शरीर वाले वे दोनों भाई दर्प भरे दो हस्ति-शावकों के समान शोभा पाते थे। कहीं तो उनके दीप्तिमान अंगों में राख लिपट जाती और कहीं वे करसी (कंडों के चूर्ण) से नहा उठते थे। वे वहाँ अग्नि के दो कुमार शाख और विशाख के समान सुशोभित होते हुए सब ओर दौड़ लगाते थे। कभी घिसे हुए घुटनों के बल सरकते हुए श्रीकृष्ण-बलराम बड़ी शोभा पाते थे। कभी वे बछड़ों के स्थानों में जाकर खेलने लगते और सारे अंगों तथा सिर के बालों में गोबर लपेट लेते थे। कान्तिरूपिणी श्री से सेवित होकर वे दोनों भाई अनुपम शोभा पाते और पिता को आनन्द प्रदान करते थे। कभी-कभी बाल स्वभाववश किसी-किसी के विपरीत कार्य कर बैठते और जोर-जोर से हंसने लगते थे।

वे सदा क्रीड़ा कौतूहल में ही लगे रहते थे। उनके सिर के घुँघराले बाल नेत्रों पर लटक कर उन्हें व्याकुल एवं चंचल कर देते थे। उन दोनों के मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर थे, अत: वे सुकुमार बालक बड़े सुहावने लगते थे। वे क्रीड़ा में ही आसक्त हो सारे व्रज में विचरते रहते थे। उन दोनों अत्यन्त मतवाले बालकों को सर्वत्र जाते देखकर भी नन्दगोप रख नहीं पाते थे। तब एक दिन यशोदा मैया अत्यन्त कुपित हो कमलनयन श्रीकृष्ण को एक गाड़ी के पास ले जाकर बारम्बार डांटने-फटकारने लगी। इतना ही नहीं, उसने उनके पेट और कमर में रस्सी बांधकर उस रस्सी को ओखली में रख दिया और कहा- 'अब जा सको तो जाओ।’ इतना कहकर वह घर के काम-धंधों में लग गयी। यशोदा के कार्य में तत्पर ही लाला कन्हैया बाल-लीला करता और व्रज के लोगों को विस्मय में डालता हुआ आंगन से निकला। वह ओखली को घसीटता हुआ वन की ओर चला। मार्ग में एक साथ उत्पन्न हुए दो अर्जुन के वृक्ष थे, बहुत बड़े हो गये थे। कन्हैया अपनी ओखली को खींचता हुआ उन्हीं दोनों वृक्षों के बीच से होकर निकला। खींचते हुए कन्‍हैया के उदर से बँधी हुई वह ओखली टेढ़ी होकर उन दोनों अर्जुन-वृक्षों की जड़ में जा लगी और वहीं अटक गयी। फिर तो उसने उन वृक्षों सहित ओखली को जोर से खींचा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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