वैशम्पायन उवाच
आर्यास्तवं प्रवक्ष्यामि यथोक्तमृषिभि: पुरा।
नारायणीं नमस्यामि देवीं त्रिभुवनेश्वरीम्।।1।।
त्वं हि सिद्धिर्धृति: कीर्ति: श्रीर्विद्या संनतिमर्ति:।
संध्या रात्रि: प्रभा निद्रा कालरात्रिस्तथैव च।।2।।
आर्या कात्यायनी देवी कौशिकी ब्रह्मचारिणी।
जननी सिद्धसेनस्य उग्रचारी महाबला ।।3।।
जया च विजया चैव पुष्टिस्तुष्टि: क्षमा दया।
ज्येष्ठा यमस्य भगिनी नीकौशेयवासिनी।।4।।
बहुरूपा विरूपा च अनेकविधिचारिणी।
विरूपाक्षी विशालाक्षी भक्तानां परिरक्षिणी।।5।।