हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वाविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर नाना प्रकार के वाद्यों की ध्वजनियों तथा शंखों के गम्भीर घोषों के साथ सूत, मागध और बन्दीजन उत्तम स्तोत्रों द्वारा भगवान की स्तुति करने लगे। ऊपर को मुख किये खड़े हुए मनुष्य उन्हें विजयसूचक आशीर्वाद देने लगे। उस समय भगवान ने सोम, सूर्य और शुक्र के समान तेजस्वी रूप धारण कर लिया था। राजन! तुम्हारा भला हो! आकाश में उड़ते हुए विनतानन्दन गरुड़ का रूप भगवान श्रीहरि के तेज से व्याप्त होकर अधिक शोभा पाने लगा। तदनन्तर कमलनयन श्रीकृष्ण आठ भुजाएँ धारण करके बाणासुर का विनाश चाहते हुए पर्वत के समान विशालकाय हो अधिक शोभा पाने लगे। खड्ग, चक्र, गदा और बाण ये चार आयुध उनके दाहिने पार्श्व में खड़े थे, ढाल, धनुष, वज्र और शंख- ये वामपार्श्व में स्थित थे। उस समय शांर्गधन्वा भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सहस्रों सिर बना लिये और संकर्षण सहस्रों शरीर धारण करने लगे। श्वेत आयुध से युक्त अजेय वीर बलराम शिखरयुक्त कैलास के समान शोभा पाते थे। वे गरुड़ के द्वारा यात्रा करते समय उदयकाल के चन्द्रमा की भाँति प्रकाशित हो रहे थे। संग्राम में पराक्रम करने को उद्यत हुए महाबाहु प्रद्युम्न के शरीर में महात्मा सनत्कुमार का स्वरूप प्रकट हो गया। बलवान गरुड़ अपने पंखों के बलपूर्वक संचालन से बहुसंख्यक पर्वतों को कम्पित करते और वायु का मार्ग रोकते हुए चले। तत्पश्चात वायु से भी बढ़कर तीव्र गति का आश्रय ले गरुड़ तत्काल ही सिद्धों और चारण समूहों के शुभ मार्ग पर जा पहुँचे। उस समय बलराम जी ने रणभूमि में अनुपम शक्तिशाली श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा- ‘कृष्ण! हम लोग अपनी स्वाभाविक कान्ति से रहित हो अपूर्ववत कैसे हो गये? हम सब लोगों की अंग कान्ति सुवर्ण के समान हो गयी है, इसमें संशय नहीं है, ऐसा क्यों हुआ? यह हमें ठीक-ठीक बताओ, क्या हम मेरुपर्वत के आस-पास चल रहे हैं?' श्रीभगवान बाेले- शत्रुदमन! मैं समझता हूँ बाणासुर का नगर अब निकट ही है। उसकी रक्षा के लिये बाहल निकलकर यह अग्निदेव प्रज्वलित होते हुए खड़े हैं। भैया हलायुध! हम लोग आहवनीय अग्नि की प्रभा से आहत हैं, इसी से हमारी अंग कान्ति में यह परिवर्तन आ गया है। बलराम जी ने पूछा- श्रीकृष्ण! यदि हम लोग शोणितपुर के निकट हैं और यदि उस अग्नि की प्रभा से आहत होकर हम लोग निष्प्रभ हो गये हैं तो अब तुम स्वयं ही बुद्धि से सोचकर बताओ कि अब यहाँ क्या करने से हमारा हित होगा। श्रीभगवान बोले- विनतानन्दन! अब यहाँ जो आवश्यक कर्तव्य हो, वह तुम्हीं करो। तुम्हारे द्वारा इस अग्नि के निवारण का उपाय कर लिये जाने पर मैं उत्तम पराक्रम प्रकट करूगाँ। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर इच्छानुसार रूप धारण करने वाले महाबली गरुड़ ने अपने हजारों मुख बना लिये। तत्पश्चात वे महाबली विनतानन्दन तुरंत ही गंगा जी के तट पर गये। वहाँ आकाश-गंगा में उतरकर प्रतापी गरुड़ ने बहुत सा जल पी लिया और अग्निदेव के ऊपर जाकर वर्षा की। उस उपाय से बुद्धिमान विनताकुमार ने पूर्वोक्त अग्नि को बुझा दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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