हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 126 श्लोक 1-17

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षड्-विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

स्वामी कार्तिकेय और श्रीकृष्ण के युद्ध में स्वामी कार्तिकेय की पराजय, कोटवी देवी का कार्तिकेय की रक्षा करना, बाणासुर और श्रीकृष्ण का युद्ध, श्रीकृष्ण का बाणासुर की हजार भुजाओं को काटना, महादेवजी का बाणासुर को महाकाल होने का वरदान देना

जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन! जब महादेव जी तथा महात्मा श्रीकृष्ण युद्ध से हट गये, तब पुन: शत्रुओं का रोमांचकारी युद्ध किस प्रकार हुआ? वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! तब कुम्भाण्ड द्वारा नियन्त्रित रथ पर बैठे हुए कार्तिकेय जी ने श्रीकृष्ण, बलराम तथा प्रद्युम्न पर एक साथ ही धावा किया। अमर्ष और रोष से अत्यन्त कुपित हुए सर्वश्रेष्ठ देवता कुमार कार्तिकेय ने उस समय सिंहनाद करके सैंकड़ों उग्र बाणों द्वारा उन सबको रणभूमि में घायल कर दिया। उन तीनों के सारे अंग बाणों से आवृत हो गये। वे तीनों त्रिविध अग्नियों के समान रक्तरंजित अंगों द्वारा ही कुमार कार्तिकेय के साथ युद्ध करने लगे। युद्ध के मार्गों का ज्ञान रखने वाले उन तीनों उद्दीप्त तेजस्वी वीरों ने क्रमश: वायव्य, आग्रेय और पार्जन्यास्त्रों का प्रयोग करके कुमार को क्षत-विक्षत कर दिया। परंतु क्रोध में भरे हुए अग्निनन्दन कार्तिकेय ने पार्वत, वारुण और सावित्र नामक तीन अस्त्रों द्वारा उक्त तीनों अस्त्रों का निवारण करके पुन: उन तीनों वीरों को घायल कर दिया। स्कन्द के बाण समूह बड़े तेजस्वी थे। उन्होंने दीप्तिमान धनुष धारण कर रखा था तो भी जब उन महात्मा के चलाये हुए शर-समूहों को वे तीनों वीर अपने अस्त्रों की माया से नष्ट करने लगे, तब कार्तिकेय को बड़ा क्रोध हुआ। वे तेज से प्रज्वलित-से हो उठे।

प्रभावशाली पावकनन्दन स्कन्द ने युद्धस्थल में अपने ओठ को दाँतों से दबा लिया और ब्रह्मशिर नामक अस्त्र उठाया, जो काल के समान दुर्जय था। सूर्यदेव के तुल्य तेजस्‍वी ब्रह्मशिर नामक परमदुर्जय लोकसंहारकारी उग्र अस्त्र का प्रयोग होने पर सब ओर हाहाकार मच गया। सब लोग इधर-उधर भागने लगे और उस अस्त्र के तेज से मोहित हुए सारे जगत में विषाद छा गया। तब परमपराक्रमी केशिहन्ता भगवान केशव ने चक्र हाथ में लिया, जो सभी अस्त्रों के बल का निवारण तथा नाश करने वाला है, जिनके सामने विरोधियों का मण्डल ठहर नहीं सकता है, उन महात्मा श्रीकृष्ण का चक्र सारे संसार में विख्यात है। उस चक्र ने अपने बल से उस ब्रह्मशिर नामक अस्त्र के निस्तेज और निर्बल हो जाने पर कार्तिकेय के नेत्र क्रोध से लाल हो उठे।

जैसे घी की आहुति पाकर अग्‍न‍ि प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वे रणभूमि में रोष से जल उठे। फिर तो उन्होंने सम्पूर्ण लोकों को भय देने वाली अपनी प्रिय शक्ति हाथ में ली, जो दिव्य सुवर्णमयी, अमोघ, भयंकर, सब ओर से प्रज्वलित तथा शुत्रओं का संहार करने में समर्थ थी, वह दिव्य शक्ति आकाश में बड़ी भारी उलका के समान प्रज्वलित हो उठती थी, प्रलयकाल के संवर्तक अग्‍न‍ि की भाँति प्रकाशित होती थी तथा वह घण्टाओं की मालाओं से अलंकृत थी, रोष में भरे हुए कार्तिकेय ने उस शक्ति को चला दिया और बड़े जोर से सिंहनाद किया, जो शत्रुओं के मन में भय उत्पन्न करने वाला था। उन ब्राह्मणभक्त महात्मा कार्तिकेय के द्वारा चलायी गयी वह शक्ति आकाश में बढ़ने-सी लगी, उसका मुखभाग प्रज्वलित हो उठा, वह महाशक्ति श्रीकृष्ण का वध करने की इच्छा से उनकी ओर दौड़ी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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